पहचान की राजनीति का युग
हम एक ऐसे युग की तरफ बढ़ रहे हैं जहाँ आधुनिक राजनीति में पहचान बहुत महत्वपूर्ण बन गयी है। पहचान की राजनीति ने संयुक्त राज्य अमेरिका में 1950 और 1960 के दशक में वैधता प्राप्त की है और पिछले कुछ दशकों में भारतीय राजनीति में भी यह एक प्रमुख विषय बन गया है। निम्न जातियों, धार्मिक पहचान, भाषाई समूहों और जातीय संघर्ष का उदय ने भारत में पहचान की राजनीति के महत्व को योगदान दिया है। विशेषज्ञों का कहना है कि पहचान की राजनीति और जाति पहचान की राजनीति उत्पीड़न और बेबसी के कई पहलुओं का परिणाम है। क्षेत्रीय दलों और जाति आधारित नेताओं का निकल कर आना उनकी जाति के सदस्यों के द्वारा उनके समर्थन करने का एक प्रमाण है। ओवैसी कोई अपवाद नहीं है।
क्या ओवैसी भाजपा को मदद करते हैं?
बिहार विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने सिर्फ सीमांचल में चुनाव लड़ा, उन्हें उम्मीद थी की वे वहां पर जीत हासिल कर सकते हैं क्योंकि वह एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। अगर उसका उद्देश्य भाजपा को मदद करने का होता तो वह ज़्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ती। असम में भाजपा + एजीपी + बीपीएफ गठबंधन के वोट शेयर 41।9% हो गया है, जबकि कांग्रेस 31% हो गया और एआईयूडीएफ कुल वोट का 13% है। कांग्रेस और एआईयूडीएफ के वोट प्रतिशत को एक साथ रखा जाए तो वह 43% होगा। कांग्रेस ने एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन नहीं किया और 79 से 26 सीटों पर ही रह गयी। कांग्रेस जैसी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी सत्ता में भाजपा को देखना बर्दाश्त कर सकती है और इसके लिए शर्मनाक हार भी स्वीकार कर सकती है, लेकिन सत्ता में बदरुद्दीन अजमल को नहीं देख सकती।
पश्चिम बंगाल में एनडीए ने 294 सीटों पर चुनाव लड़ा, कुल मतों का 10।7% हासिल कर 6 सीटें जीती और यहाँ उसके वोट प्रतिशत में 5।92% की बढ़ोतरी देखने को मिली। यह सच है कि भाजपा पश्चिम बंगाल में एक महत्वपूर्ण पार्टी नहीं थी, लेकिन क्या उसके वहां कोई सपने नहीं हैं? अगर ओवैसी की चुनावी रणनीति वास्तव में भाजपा में मदद करने के लिए होती, तो एआईएमआईएम की पश्चिम बंगाल में उपस्थिति, जहां मुसलमानों का प्रतिशत 27 प्रतिशत के आसपास में उत्तरार्द्ध मदद नहीं कर सकता? बड़ा सवाल यह है कि ओवैसी को यह साबित करने के लिए कि एआईएमआईएम भाजपा की बी-टीम नहीं है, ऐसे सभी राज्यों में जहां भाजपा लड़ाई में है वह से हट जाना चाहिए। निकट भविष्य में, अगर भाजपा की स्थिति सभी राज्यों में भारी चुनाव लड़ने के लिए में हो जाये, तब क्या ओवैसी को उनकी पार्टी की धर्मनिरपेक्षता साबित करने के लिए किसी भी राज्य में चुनाव लड़ने से रोकना चाहिए?
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक
मुसलमान एक गुट के रूप में मतदान नहीं करते हैं। सपा, बसपा और कांग्रेस के लिए मुस्लिम समर्थन में राज्य के उप-क्षेत्रों में उतार चढ़ाव होता रहता। 2007 में, सपा राज्य भर में अन्य सभी दलों से आगे थी, जबकि 2012 में मुसलमानों के बीच पार्टी का जनाधार रोहिलखंड और पूर्वांचल में गिरावट आई है। दूसरी तरफ, बसपा, को राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में अवध, रोहिलखंड, और पूर्वांचल में अधिक मुस्लिम समर्थन करते हैं। कांग्रेस पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रोहिलखंड, और दोआब से अपने मुस्लिम समर्थन प्राप्त करती है।
EPW (आर्थिक और राजनीतिक साप्ताहिक) ने 31 दिसम्बर 2017 को राहुल वर्मा और प्रणव गुप्ता की एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इन लेखकों ने मतदाताओं के वोट करने की मन भावना को जानने के लिए मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश के आठ जिलों का दौरा किया। उन्होंने जानना चाहा कि 2017 के विधानसभा चुनावों में मतदाता किस प्रकार वोट करेंगे। उन्होंने निष्कर्ष निकला की मुसलमानों का वोट पैटर्न किसी भी अन्य समुदाय की तरह ही है। उनकी (मुसलमान) वोट भी पार्टी वरीयताओं, उम्मीदवारों के प्रदर्शन, कल्याण की नीतियों और नेतृत्व के आलावा कई अन्य बातों से प्रेरित है। मुसलमानों के वोट पैटर्न को किसी भी दूसरे नज़रिए से पेश करना निश्चित रूप से कल्पना, शायद पक्षपातपूर्ण का एक काम है, और किसी भी विश्वसनीय सबूत के बिना सिर्फ एक गुमराह राय है।
आने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव में, एआईएमआईएम सहित सभी दलों के अपने हिस्से पाने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। यह कहना अनुचित है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों एक गुट के रूप में वोट करेंगे और ओवैसी उपस्थिति उन्हें विभाजित करके भाजपा की जीत सुरक्षित करने का मतलब है। यह एक सरासर गलत राय है।
मूल लेख muslimmirror.com पर प्रकाशित हुआ है। इसका सियासत के लिए हिंदी अनुवाद मुहम्मद ज़ाकिर रियाज़ ने किया है।