-अभिसार शर्मा-
जो समाज अपने बच्चों की रक्षा नहीं कर सकता, वो खोखला है। और जो समाज अपने बच्चों के दर्द, तकलीफ पर अपनी नाकामी की चादर चढ़ाता है, वो समाज, वो सरकार कमज़ोर है। और जब हम अपने बच्चों के स्वास्थ्य को अपनी प्राथमिकता के सबसे निचले पायदान पर रखते हैं, तब प्रोपेगंडा के ज़रिये हासिल सुर्खियों और उसके ज़रिये बनाये गए एक गुजरात मॉडल के आडम्बर के क्या मायने हैं, इस पर गंभीर बहस नहीं होती!??! मगर अपने बच्चों के खातिर, उनके भविष्य के खातिर, हम अपनी आँखें ज़्यादा दिनों तक नहीं मूँद रख सकते?
अहमदाबाद के असरवा स्थित सिविल अस्पताल में 18 शिशुओं की मौत हो जाती है, वह अस्पताल जिसका मुकाम भारत नहीं बल्कि एशिया में है। पहले तो अस्पताल के सुपरिंटेंडेंट डॉ एम् एम् प्रभाकर ऐसी मौतों से ही इंकार करते हैं, फिर अपनी नाकामी को स्वीकार करना पड़ता है। प्रभाकर कहते हैं के रोज़ाना चार-पांच बच्चों की मौत सामान्य बात है और अगर एक दिन में नौ बच्चों की मौत हो गयी है, तो ये महज एक मामूली बढ़ोतरी है। डॉ आर के दीक्षित की अध्यक्षता में इन मौतों पर बनी समिति के पहले मसौदे में अस्पताल की कोई आलोचना नहीं है, अलबत्ता ये ज़रूर कहा गया है के स्टाफ की संख्या, जिसमें रेजिडेंट डॉक्टर्स और नर्सें शामिल हैं, उन्हें बढ़ाने की ज़रूरत है। हैरत की बात ये है के अहमदाबाद मिरर की खबर के मुताबिक ये भी कहा गया है के सीनियर डॉक्टर्स को भी समय समय पर अपनी राय देने की ज़रूरत है।
तो अगर इन बच्चों की मौत दवाई और डॉक्टर्स की कमी की वजह से नहीं हुई, तो फिर ऐसा कहने की ज़रूरत क्यों पड़ी? ये न भूलें के अहमदाबाद सिविल अस्पताल जहाँ ये मौतें हुई हैं, एशिया का सबसे बड़ा अस्पताल है, देश के कथित सबसे विकसित राज्य में। इस अस्पताल में गोरखपुर के बी आर डी अस्पताल की बेबसी भी नहीं है जहाँ ये अस्पताल 300 किलोमीटर के दायरे में दिमागी ज्वर के लिए एकमात्र अस्पताल है, न देश के सबसे ज़्यादा आबादी वाले, पिछड़े क्षेत्र का दंश है, श्राप है। फिर कैसे हो गईं ये मौतें ? ये गुजरात मॉडल तो अमिट, अजेय हैं न ?
साल 2016 में केंद्र सरकार ने एक रिपोर्ट स्वीकृत की थी, और ये रिपोर्ट थी यूनिसेफ की। जिसका कहना था के गुजरात में 10.1 फीसदी बच्चे सामान्य वज़न से कम हैं (गंभीर श्रेणी) और करीब 41.6 फीसदी बच्चों की बढ़ोतरी रुकी हुई या अंग्रेजी में कहते हैं STUNTED है। जिस राज्य के मॉडल का अनुसरण करने की हिदायत मोदीजी पूरे देश में देते हैं, उसी राज्य के बच्चे कम वज़न हैं, कुपोषण के शिकार हैं और उन्हें पूरा पोषण नहीं मिल रहा है। और उस वक़्त की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने जैसी उम्मीद थी इस रिपोर्ट को ही ख़ारिज कर दिया।
गौर करें के कम वज़न बच्चों का राष्ट्रीय औसत 29.40 फीसदी गुजरात से बेहतर है, जबकि गुजरात में ये आंकड़ा 33.50 फीसदी है (गंभीर तौर पर कम वज़नी बच्चों का आंकड़ा, 10.1 फीसदी है)। और जिन बच्चों की बढ़त रुकी हुई है (Stunted Growth), उसका राष्ट्रीय आंकड़ा 38.40 फीसदी है जबकि गुजरात में ये आंकड़ा 41.6 फीसदी है।
यही तो करती हैं ज़िम्मेदार सरकारें। कोई भी सवाल, जो राज्य की इज़्ज़त उसकी अस्मिता पर वार करे, उससवाल को ही खारिज कर दो। बेशक वो आपके बच्चों के भविष्य के बारे में ही क्यों न हो।
गुजरात अपने बच्चों को पोषण देने में कितना नाकाम रहा है, उसकी मिसालें 2013 में भी मिली थी जब CAG और खुद सरकार की रिपोर्ट ने कुछ चौंकाने वाले दावे किये थे। गौर कीजिये
CAG:
1. 2007 से 2012 के बीच सप्लीमेंटरी पोषण देने के बावजूद, गुजरात में हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है।
2. करीब 1.87 करोड़ लोग एकीकृत बच्चा विकास सेवा ( Integrated Child Development Services, ICDS) से महरूम हैं।
अब देखिये खुद राज्य की उस वक़्त की महिला और बाल विकास मंत्री वसुबेन त्रिवेदी ने क्या कहा था
1. 14 ज़िलों के 6.13 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, और बाक़ी 12 ज़िलों में तो आंकड़े मौजूद ही नहीं थे।
2. अहमदाबाद जिले में करीब 85, 000 हज़ार कुपोषित बच्चे हैं, वह अहमदाबाद जो गुजरात मॉडल की नब्ज है।
3. सबसे हैरत में डाल देने वाली बात ये के कुपोषण की समस्या सिर्फ किसी ख़ास ज़िले या इलाके तक सीमित नहीं है बनासकांठा के आदिवासी ज़िलों (78, 421 बच्चे) से लेकर मध्य गुजरात के दाहोद (73, 384 बच्चे) , जूनागढ़ और पश्चिमी सौराष्ट्र के अन्य ज़िलों में भी कुपोषित बच्चों का आंकड़ा (17, 263 बच्चे) सकते में डाल देने वाला है
सवाल ये के आप इसे कैसे सम्बोधित कीजियेगा? जब राज्य सरकार भी उदासीन है और मीडिया का ध्यान ही नहीं है। मगर फिर आपको याद होगा के कैसे स्वाइन फ़्लू से हुई 343 मौतों पर गज़ब की चुप्पी छा गयी थी। राज्य सरकार इतना बौखला गयी थी के उसे केंद्र सरकार से मदद के अपील करनी पड़ी थी।
बहरहाल, बच्चों में कुपोषण के मुद्दे पर वापस आते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री और देश के प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी ने तो वाल स्ट्रीट जर्नल को एक इंटरव्यू में ये तक कह दिया था के अगर बच्चों के वज़न काम हैं, कुपोषित हैं, तो इसके पीछे उनका शाकाहारी खाना और उनका अपने फिगर को लेकर चिंतित होना है। मोदीजी ने ये भी कहा था के निरंतर प्रयास कर रहे हैं।
जाने माने अर्थशास्त्री ज़्यों ड्रेज़ और रितिका खेरा ने एक शोध में कहा था कि मानव विकास सूचकांक ( Human Development Index) में 20 राज्यों में गुजरात का स्थान नौवें नंबर पर था। इस सूचकांक में शुमार है: उनका भरण पोषण, उनका स्वास्थ्य, शिक्षा और टीका करण जैसे पहलू।
नीति आयोग से पहले योजना आयोग ने भी 2012 का जो गरीबी आंकड़ा पेश किया था, उसमें गुजरात 10वे नंबर पर था। इस समग्र सूचकांक में गुजरात से बेहतर, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों की थी।
और सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा। मातृ मृत्यु दर यानि के प्रति 1000 औरतों में कितनी औरतों की मृत्यु होती है प्रति वर्ष। इसमें भी पिछले दिनों बढ़ोतरी हुई है। यह दर 2013 -14 में 72 थी जो 2016 में बढ़कर 85 हो गयी है। शिशु मृत्यु दर में ज़रूर कमी आयी है, मगर दूसरे राज्यों की तुलना में यह फिर भी अधिक है। क्या आप जानते हैं के शिशु मृत्यु दर में गिरावट का जो आंकड़ा है वो बिहार राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में गुजरात की तुलना में कहीं बेहतर है। और ये कहने को बीमारू राज्य थे या हैं।
देखिये भारत जैसे पेचीदा मुल्क में इन समस्याओं का हल किसी अलादीन के चिराग से नहीं होगा। मगर जनता को “नो उल्लू बनाविंग”। कम से कम गुजरात मॉडल के नाम पर तो बिलकुल भी नहीं। अब और नहीं ! और वक़्त आ गया है के गुजरात के, खासकर बच्चों के स्वास्थ्य पर, जो हालत हैं, उसपर खामोशी टूटे और इसकी गूँज सुनाई दे। मगर गुजराती अस्मिता के नाम पर पहले भी मुद्दों को दफन किया जाता है और आगे भी शायद यही होता रहेगा…बच्चे मरते रहेंगे और मॉडल रैंप पर कैटवाक करते रहेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)