गुनाह और उसका कफ़्फ़ारा

अल्लाह तआला का इरशाद है कि (ऐ पैग़ंबर!) ये उन (हिदायतों) में से हैं, जो अल्लाह ने दानाई ( अक्लमंदी) की बातें तेरी तरफ़ वही की हैं और अल्लाह के साथ कोई और माबूद ना बनाना कि (ऐसा करने से) मलामत ज़दा और (बारगाह ए इलाही से) रांदा बनाकर जहन्नुम में डाल दिए जाओगे। ये अहकामात हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर नाज़िल किए गए अहकाम की निसबत ज़्यादा जामि हैं,जो रसूलुल्लाह(स०अ०व०) पर मेराज के दौरान वही हुए थे। तमाम क़ुरआनी आयात के हवाले देना तवालत के सबब मुम्किन नहीं, ताहम उन चंद आयात का हवाला देना ज़रूरी है, जिसमें एक आम आदमी का समाजी रवैय्या क्या होना चाहीए, इस बारे में रहनुमाई दी गई है।

अल्लाह तआला का इरशाद है: और अल्लाह ही की इबादत करो और इस के साथ किसी चीज़ को शरीक ना बनाओ और माँ बाप और क़राबत वालों और यतीमों और मोहताजों और रिश्तेदार हमसाइयों और अजनबी हमसाइयों और रफ़ीक़ाए पहलू (यानी पास बैठने वालों) और मुसाफ़िरों और जो लोग तुम्हारे क़बज़े में हों, सबके साथ एहसान करो कि अल्लाह (एहसान करने वालों को दोस्त रखता है और) तकब्बुर करने वाले बड़ाई मारने वाले को दोस्त नहीं रखता।

इरशाद फ़रमाया जो ख़ुद भी बुख़ल ( कंजूसी) करें और लोगों को भी बुख़ल सिखाएं और जो (माल) अल्लाह ने उनको अपने फ़ज़ल से अता फ़रमाया है, उसे छिपा छिपाकर रखें और हमने ना शुक्रों के लिए ज़िल्लत का अज़ाब तैयार कर रखा है।

इरशाद फ़रमाया और ख़र्च भी करें तो (अल्लाह के लिए नहीं, बल्कि) लोगों के दिखाने को। और ईमान अल्लाह पर ना
लाएंगे और ना रोज़ ए आख़िरत पर। (ऐसे लोगों का साथी शैतान है) और जिसका साथी शैतान हो तो (कुछ शक नहीं कि) वो बुरा साथी है। (४३६ ता ३८)

दर्ज जे़ल आयात में मुस्लिम मआशरे की अक्कासी की गई है: इरशाद फ़रमाया मोमिन तो आपस में भाई भाई हैं तो अपने दो भाईयों में सुलह करा दिया करो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम पर रहमत की जाये।

इरशाद फ़रमाया मोमिनो! कोई क़ौम किसी क़ौम से तम्सख़र ना करे, मुम्किन है कि वो लोग उनसे बेहतर हों और ना औरतें औरतों से (तम्सख़र करें) मुम्किन है कि वो उनसे अच्छी हों और अपने (मोमिन भाई) को ऐब ना लगाओ और ना एक दूसरे का बुरा नाम रखो। ईमान लाने के बाद बुरा नाम (रखना) गुनाह है और जो तौबा ना करें ज़ालिम हैं।

इरशाद फ़रमाया ऐ अहल ईमान! बहुत गुमान करने से ऐतराज़ करो कि बाअज़ गुमान गुनाह हैं और एक दूसरे के हाल का तजस्सुस ना किया करो और ना कोई किसी की ग़ीबत करे। क्या तुम में से कोई इस बात को पसंद करेगा कि अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाए ? इससे तो तुम ज़रूरत नफ़रत करोगे (तो ग़ीबत ना करो) और अल्लाह का डर रखो, बेशक अल्लाह तौबा कुबूल करने वाला मेहरबान है।

(४९१० ता १२)

मुंदरजा बाला आयात में जो अच्छे मश्वरे दिए गए हैं, उन पर कोई ऐतराज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन इंसान में बशरी कमज़ोरियां हैं, उसकी साख़त ( बनावट ) में बैयकवक्त अच्छाई और बुराई दोनों अनासिर शामिल हैं। उसकी जुबली ख़ामीयों में ये शामिल है कि वो ग़ुस्सा में आता है, तराग़ीब के सामने हथियार डाल देता है और उन लोगों को नुक़्सान पहुंचाने पर तुल जाता है, जो कमज़ोर हैं और अपने दिफ़ा या इंतेक़ाम की ताक़त नहीं रखते।

इसी तरह उसकी अच्छाईयों में ये शामिल है कि वो बुरा काम करने के बाद इस पर पछताता है और एहसास बढ़ जाये तो नुक़्सान के अज़ाले की कोशिश भी करता है।

इस्लाम गुनाहों को दो दर्जों में तक़सीम करता है: (१) वो गुनाह जो अल्लाह के हुक़ूक़ के ख़िलाफ़ किए जाएं (कुफ्र, नमाज़ और इबादात में कोताही वग़ैरा) (२) वो गुनाह जो बंदों की हक़तलफ़ी की सूरत में किए जाएं। ये बात याद रहे कि अल्लाह तआला दूसरे इंसानों के ख़िलाफ़ किए गए जराइम माफ़ नहीं करता। सिर्फ़ वही शख़्स माफ़ कर सकता है, जिस पर ज़ुल्म या ज़्यादती हुई हो। अगर कोई इंसान किसी दूसरी मख़लूक़ से ज़्यादती करता है, वो इंसान हो, हैवान हो, या कोई और हो तो वो दरअसल दोहरे जुर्म का इर्तिकाब करता है, एक तो मुतास्सिरा पर ज़ुल्म का जुर्म और दूसरा ख़ुदा के ख़िलाफ़ जुर्म, क्योंकि ये गुनाह अल्लाह तआला के क़ानून की ख़िलाफ़वरज़ी है।

इस तरह जब किसी दूसरी मख़लूक़ से नाइंसाफ़ी या इसके ख़िलाफ़ किसी जुर्म का इर्तिकाब होता है तो मुजरिम को ना सिर्फ़ मुतास्सिरा शख़्स के नुक़्सान का अज़ाला करना होगा, बल्कि ख़ुदा से भी माफ़ी मांगनी होगी।

एक मारूफ़ हदीस शरीफ़ में फ़रमाया गया कि क़यामत के रोज़ एक औरत को दोज़ख़ में झोंक दिया जाएगा, जिसने एक बिल्ली को बांध कर उसे भूखा और प्यासा रखा, यहां तक कि वो मर गई। एक और हदीस शरीफ़ में उन लोगों के लिए अज़ाब की वईद दी गई, जो अपने जानवरों को पेट भर चारा नहीं देते और उन पर उनकी ताक़त से ज़्यादा बोझ लादते हैं।

रसूलुल्लाह (स०अ०व०) ने बिलाज़रूरत दरख़्त काटने से भी मना फ़रमाया है। इंसान को अल्लाह तआला की पैदा की गई चीज़ों से नफ़ा ज़रूर उठाना चाहीए, ताहम ये काम मुनासिब और माक़ूल तरीक़े से होना चाहीए, इसमें ऐशपरस्ती और ज़या से हर मुम्किन गुरेज़ करना चाहीए।

जब कोई शख़्स किसी दूसरे को नुक़्सान पहुंचाता है और फिर इसका अज़ाला करना चाहता है तो इसके कई रास्ते हैं। बाअज़ औक़ात सिर्फ़ माफ़ी मांग लेने से सारा मुआमला हल हो जाता है, बाअज़ औक़ात अमलन इन हुक़ूक़ को बहाल करना पड़ता है जो छीने गए थे और अगर जो चीज़ छीनी गई थी वो वापस करना मुम्किन ना हो तो इस के मुतबादिल कोई चीज़ देनी पड़ती है।

दूसरों के लिए रहम और शफ़क्क़त का मुज़ाहिरा करना और माफ़ कर देना बहुत अच्छा वस्फ़ है और इस्लाम ने इस पर बहुत ज़ोर दिया है। उसे क़ाबिल-ए-तारीफ़ क़रार देते हुए क़ुरआन मजीद में इरशाद फ़रमाया और अपने परवरदिगार की बख्शिश और बहिश्त की तरफ़ लपको, जिसका अर्ज़ आसमानों और ज़मीन के बराबर है और जो (अल्लाह से) डरने वालों के लिए तैयार की गई है।

इरशाद फ़रमाया जो आसूदगी ( खुशहाली) और तंगी में (अपना माल अल्लाह की राह में) ख़र्च करते हैं और ग़ुस्से को रोकते हैं और लोगों के क़ुसूर माफ़ करते हैं और अल्लाह नेको कारों को दोस्त रखता है। (३१३३,१३४)

माफ़ कर देने की तौसीफ की गई है, लेकिन बदला या क़िसास लेने की इजाज़त भी दी गई है। इस हवाले से क़ुरान-ए-पाक में इरशाद है: और बुराई का बदला तो इस तरह की बुराई है, मगर जो दरगुज़र करे और (मुआमले को) दुरुस्त कर दे तो इसका बदला अल्लाह के ज़िम्मा है, इसमें शक नहीं कि वो (अल्लाह) ज़ुल्म करने वालों को पसंद नहीं करता। इरशाद फ़रमाया और जिस पर ज़ुल्म हुआ अगर वो इसके बाद इंतेक़ाम ले तो ऐसे लोगों पर कुछ इल्ज़ाम नहीं (४२४०,४१) क़ुरआन मजीद में इस जैसी मुतअद्दिद आयात हैं।

डाक्टर मुहम्मद हमीद उल्लाह (पेरिस)