नई दिल्ली: मुंशी नवल किशोर(3 जनवरी1836-19 फ़रवरी1895) का जन्म अलीगढ़ के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में सन् 3 जनवरी 1836 में हुआ था. अंग्रेजी शासन के समय के भारत के उद्यमी, पत्रकार एवं साहित्यकार थे. इनकी जिन्दगी का सफर कामयाबियों की दास्तान हैं. शिक्षा, साहित्य से लेकर उद्योग के क्षेत्र में उन्होंने सफलता पायी और जो बात सबसे उल्लेखनीय थी वह यह कि उन्होंने हमेशा मानव मूल्यों का सम्मान किया.
मुंशी नवल किशोर ने उर्दू अरबी और फारसी की जो खिदमत अंजाम दी है उसे भुलाया नहीं जा सकता है .इस के अलावे संस्कृत, हिन्दी, बंगाली, गुरूमुखी, मराठी, पशतो और अंग्रेजी में भी उन के योगदान कम नहीं है.
मुंशी नवल किशोर प्रेस में कुरान व हदीस की छपाई में उनकी पवित्रता का खास ध्यान रखा जाता था. पुस्तकों के प्रकाशन के अलावा इसने उर्दू का ‘अवध अखबार’ का प्रकाशन करके भी देश व समाज की बड़ी सेवा की. उर्दू का यह अखबार मुंशी नवलकिशोर को अंग्रेजी सत्ता के संरक्षण के बावजूद अंग्रेजों के अत्याचारों की भरपूर खिंचाई करता था.
शुरू से ही समाचारपत्रों और व्यापार में रूचि थी. कुछ समय तक ‘कोहिनूर’ में काम करने के बाद 1858 में 22 साल की उम्र में लखनऊ आ गए. यहाँ आते ही उन्होंने नवल किशोर प्रेस स्थापित किया. देखते ही देखते इस प्रेस की ख्याति इतनी बढ़ी कि इसे पेरिस के एलपाइन प्रेस के बाद दूसरा दर्जा दिया जाने लगा. सभी मजहब की पुस्तकों और एक से बढ़ कर एक साहित्यकारों की कृतियों को इस प्रेस ने छापा. कुल प्रकाशन का 65 प्रतिशत उर्दू, अरबी और फारसी तथा शेष संस्कृत, हिन्दी, बंगाली, गुरूमुखी, मराठी, पशतो और अंग्रेजी में है. पूरी दुनिया के बड़े-बड़े पुस्तकालयों में उनके यहां की किताबें मिल जाती है. जापान में मुंशी नवल किशोर के नाम का पुस्तकालय है तो जर्मनी के हाइडिलबर्ग और अमेरिका के हावर्ड विशविद्यालय में उनकी प्रकाशित सामग्री के विशेष कक्ष हैं.
उद्योग के क्षेत्र में भी उनका अपना योगदान है. 1871 में उन्होंने लखनऊ में अपर इण्डिया कूपन पेपर मिल की स्थापना की थी जो उत्तर भारत में कागज बनाने का पहला कारखाना था. बहुआयामी व्यक्तित्व और बहुआयामी सफलताओं को अपने में समेटे मुंशी नवल किशोर ने 19 फ़रवरी 1895 को सदा के लिए हमें अलविदा कह गए.
75वीं पुण्यतिथि पर 19 फरवरी, 1970 को उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने उनको पुराने व नये ज्ञान के बीच समन्वय का सेतु बताया और कहा था कि कई भाषाएं उनकी ऋणी हैं.
उल्लेखनीय है कि मुंशी नवल किशोर ने प्रकाशन और अपने पुस्तकलय के माध्यम से जो खिदमत अंजाम दी है उसे कभी भुलाया जा सकता है.