मैं इंस्टेंट ट्रिपल तलाक़ के सख़्त खिलाफ़ हूं और मानती है कि इस मध्ययुगीन प्रथा को किसी भी तर्क से सही नहीं ठहराया जा सकता है। यह प्रथा भारत के कुछ हिस्सों में भले प्रचलित हो लेकिन देश का क़ानून मुस्लिम मर्दों को यह अधिकार नहीं देता कि वे अपनी बीवी को तीन बार तलाक़ तलाक़ तलाक़ बोलकर घर से बाहर निकाल दें. देश के कई राज्यों की हाई कोर्ट और 2002 में सुप्रीम कोर्ट इंस्टेंट ट्रिपल तलाक़ को ग़ैर कानूनी करार दे चुकी हैं. सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले को आधार बनाकर अगर तीन तलाक़ की पीड़ित महिला परामर्श केंद्र जाए तो उसके साथ इंसाफ होने की पूरी गुंजाइश है. वो चाहें तो पुलिस की मदद लेकर अपने शौहर की ऐसी मर्दवादी हरक़त पर उसे नाको चने चबवा सकती हैं.
ऐसा ही एक दिलचस्प वाक़या मेरे सामने आया है जिसे क़रीब से देखने के बाद मैं कह सकती हूं कि देश ख़ासकर मीडिया और सोशल मीडिया पर इस कुप्रथा के नाम पर स्वस्थ बहस कम और वितंडा ज़्यादा खड़ा किया जा रहा है. तो हुआ यूं कि मेरे एक जानने वाले की अपनी बीवी से नहीं बनी, वो शादी से खुश नहीं थे, मियां बीवी में रोज़ाना झगड़े होते वो साथ नहीं रहना चाहते। मामला इतना बिगड़ा कि नौबत तलाक तक आ गई. क्योंकि परिवार ने भी समझौते से अलग होने नहीं दिया. अब उन्होंने वकील के ज़रिए पत्नी को तलाक भेज दी जिसे लड़की वालों ने मानने से इंकार कर दिया और पुलिस के पास चले गए. फिर हुआ ये कि लिफ़ाफ़े में भेजा गया तीन तलाक कूड़े में फेंक दिया गया और पुलिस कई महीनों से जनाब को चक्कर कटवा रही है और मामला कोर्ट में भेज दिया गया है.
अब मुद्दा ये है कि अगर तीन तलाक देने के बाद कोई औरत कोर्ट या पुलिस का रुख़ कर ले तो पति के तीन तलाक कोई मतलब नहीं रह जाता है. 2002 के शमीम आरा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि मनमाने ढ़ंग से मौखिक तलाक या डाक से भेजा गया तलाकनामा कानूनीतौर पर सही नहीं माना जाएगा और तलाक से पहले बातचीत करना जरूरी है. लिहाज़ा, मेरा मानना है कि टीवी पर बहस करने से ज़रूरी है कि मुस्लिम औरतों को उनके हक़ बताए जाएं उन्हें इस गलतफहमी से निकाला जाए कि तीन तलाक कहने के बाद वो सारी लड़ाई हार जाती हैं.
ज़रूरी है कि बीवियां शौहरों की मनमानी तलाक के खिलाफ़ कोर्ट और पुलिस तक पहुंचे. उनको जागरुक करना ज़रूरी है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और औरतों के लिए लड़ाई लड़ रहीं संस्थाओं को भी महिलाओं को जागरुक करने की ज़रूरत है ताकि वो इस ज़ुल्म से बच पाएं. लेकिन फिलहाल ट्रिपल तलाक का मुद्दा एक राजनीतिक रंग ले चुका है. कोई भी असल मुद्दे पर ध्यान नहीं दे रहा है. सरकार ने यूसीसी का शगुफा छोड़ दिया तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बौखला गया जबकि देश में सैंकड़ों पर्सनल लॉ बोर्ड हैं. न्यूज़ चैनल भी मुस्लिम महिलाओं के मुद्दे को भुना रहा है. यहां बहस होती है लेकिन औरतों के हक़ के लिए लड़ने वाली संस्थाएं औरतों को जागरुक करने की मुहिम नहीं चलाती हैं. उन्हें चाहिए कि वो बताएं औरतों को कि तीन तलाक सुनने के बाद उनके पास रास्ता होता है वो पुलिस के पास जाएं और अपना हक़ मांग सकती है.