जहां किराए की इमारत में चलता है सेकरीट्रिएट

गैर मुंकिस्म बिहार का जुनूबी इलाक़ा खनिज और मूअदनी और कुदरती जायदाद से भरपूर था। मगर आदिवासी अकसरियत इस इलाक़े पर इक्तिदार में बैठे लोगों का जेहन कभी नहीं जाता था।
यह इलाक़ा मूअदनी आलात के दोहन, उदासीनता और इस्तहसाल का अलामत बन चुका था। इसलिए कई दशकों पहले इसको अलग करने की मांग ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया।
लम्बे जद्दो-जहद के बाद 15 नवम्बर 2000 में बिहार के जुनूबी इलाके को अलग कर झारखंड रियासत की तशकील किया गया. लेकिन 14 सालों के बाद भी झारखंड की ना तो अपनी एसेम्बली है, ना सेकरीट्रिएट और ना ही कोई मजबूत बुनियादी स्ट्रक्चर । आख़िर ऐसी बदहाली क्योंकर हुई और इसके लिए कौन मुजरिम है?

साल 2000 में झारखंड के तशकील के बाद से यहां हुक़ूमत करने वाली तमाम हुकूमतें किराए के इमारतों में चलीं और इसीलिए इन हुकूमतों पर ‘किराए की सरकार’ का ठप्पा लगा रहा।
नौ वजीरे आला, 16 चीफ़ सेक्रेटरी, दस पुलिस डाइरेक्टर। यह है झारखंड के तशकील के 14 सालों का सफ़र। हालाकि बतौर वजीर आला अर्जुन मुंडा कई बार कुर्सी पर रहे मग़र कोई भी वजीरे आला अपनी कुर्सी पर तीन सालों से ज्यादा नहीं टिक पाया। इन सबके दरमियान एक आज़ाद एसेम्बली को भी झारखंड का वजीरे आला बनने का मौक़ा मिला।

झारखंड में वजीर आला की कुर्सी ‘म्यूज़िकल चेयर’ बन कर रह गई और इनमें रिकॉर्ड दस दिन का मुद्दत शिबू सोरेन का रहा। तीन बार ऐसे भी मौके आए जब झारखंड को सदर राज में रहना पड़ा। एक बार तो ऐसा मौक़ा भी आया जब राज्य में दो-दो नायब वजीरे आला को तकररूरी किया गया।
रियासत के सियासी दल झारखंड की बदहाली का ठीकरा एक दूसरे के मत्थे मढ़ रहे हैं। जब की बदहाली के इस हमाम में सब एक जैसे ही हैं।

सियासी एदम इस्तहकाम ने कई आज़ाद एमएलए को सियासत की फलक पर सिर्फ़ लाकर बैठाया ही नहीं, बल्कि कई दीगर छोटी-मोटी पार्टियों की भी हुकूमत बनाने की अहमियत बढ़ा दी।