ट्रिपल तलाक का जिन्न फिर बाहर आ गया है। अब यह चुनाव तक रोज हंगामा करता ही रहेगा। सब को पता है कि न तो मोदी सरकार इसे खत्म करना चाहती है और न इसे खत्म कर देने से मुस्लिम महिलाओं का कोई भला होने वाला है। लेकिन आने वाले तीन-चार महीनों तक यूपी में ट्रिपल तलाक चर्चा में रहेगा। ट्रिपल तलाक एक ऐसा राजनीतिक जिन्न है जो हर दल को उसकी अपेक्षा के अनुसार इच्छा पूरी करता ही है। इस बार भाजपा इसे यूपी में भुनाने के मूड में है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जितना इसका विरोध करेगा उतना ही उस विरोध का विरोध होगा और मुस्लिम महिलाएं भी इस ट्रिपल तलाक के विरोध में मुखर हैं। इसलिए अकेले पर्सनल लॉ बोर्ड के बूते का नहीं है कि वह इसका विरोध करे या विधि आयोग की प्रश्नावली को नकार दे। सरकार ने खूब सोच-समझकर ही इस मुद्दे को अब उठाया है। जबकि विधि आयोग के समक्ष यह मामला फरवरी में आया था पर न तो कानून मंत्रालय ने तब इस पर कोई पहल की और न ही विधि आयोग इस पर सीरियस रहा। अब सीधे पीएमओ की हरी झण्डी मिलने पर कानून मंत्रालय इस विषय को लेकर सक्रिय हुआ है।
हालांकि प्रधानमंत्री ट्रिपल तलाक के मामले को समान नागरिक संहिता का हिस्सा नहीं मानते हैं और उन्होंने साफ कहा है कि ट्रिपल तलाक का मामला लैंगिक भेदभाव का है और कोई भी धार्मिक कानून देश में किसी की निजी स्वतंत्रता का हनन नहीं कर सकता। देश में मुस्लिम महिलाएं इस ट्रिपल तलाक को समाप्त करने के लिए बेचैन हैं और आंदोलन भी करती रही हैं इसलिए इस पर विचार करना चाहिए और इसीलिए विधि आयोग इस पर जनसमर्थन जुटाने के प्रयास में है। मगर मुस्लिम संगठन और मौलाना इस ट्रिपल तलाक के मुद्दे को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बनाए हैं। उन्हें लगता है कि अगर ट्रिपल तलाक पर प्रतिबंध लग गया तो धीरे-धीरे उनकी और धार्मिक कानूनों पर प्रतिबंध नहीं लगेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। इसलिए वे पूरे मुस्लिम समाज को इस विषय पर एकजुट होने की अपील कर रहे हैं। और इसी तरह वे भाजपा के बिछाये जाल में फँसते जा रहे हैं।
मुस्लिम संगठनों के प्रवक्ता अपनी बात को तार्किक रूप से रख नहीं पा रहे हैं। इसकी एक वजह तो यह भी है कि स्वयं उनके समाज में फूट है। अधिकांश मुस्लिम महिलाएं ट्रिपल तलाक की कानूनी वैधता को लेकर बेचैन रहती हैं। खासकर वे जो आधुनिक रंग में रंगी हैं और वे मानती हैं कि विवाह आदि मनुष्य के व्यक्तिगत मसले आधुनिक कानून के दायरे में आए ताकि मनुष्य की निजी स्वतंत्रता किसी धार्मिक समाज के मध्यकालीन कानूनों से नहीं संचालित हों। मगर धर्म की यदि आधुनिक व्याख्या की जाए तो इसमें कोई शक नहीं कि मुस्लिम विवाह कानून काफी हद तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करते हैं और ऐसी स्वतंत्रता जो मनुष्य को उसके समाज के अनुकूल बनाती है। मसलन मुस्लिम विवाह स्वयं में ही एक कानून है। वहां पर विवाह को काजी ही सही करता है। यानी तब तक वह विवाह गैरइस्लामी है जब तक काजी का सर्टिफिकेट न हो और काजी वर-वधू की पारस्परिक सहमति से ही प्रमाणपत्र देता है। इसी तरह तलाक भी काजी का प्रमाण मांगता है और वर को बाध्य करता है कि वह विवाह के समय वधू को दिए गए वचन के अनुसार मेहर नहीं वापस करे। मगर मुस्लिम संगठन इस वक्त हताशा में हैं और वे सही-गलत का फैसला नहीं कर पा रहे। वे इस पूरे मामले को स्वयं ही मुस्लिम बनाम हिंदू बनाए दे रहे हैं।
धैर्यपूर्वक अपनी बात रखने से शायद वे इस मसले का कोई सर्वमान्य हल निकाल पाते। विधि आयोग के प्रश्नों को खारिज करना कोई हल नहीं है। मगर वे इस कदर उलझे हुए हैं कि एक सामान्य-सी चुनावी रणनीति से उबर पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। दरअसल ट्रिपल तलाक का मामला कोई तीन दशक पुराना है जब शाहबानो के मामले में राजीव गांधी सरकार ऐसी उलझी थी कि उसने न सिर्फ मौलानाओं के आगे घुटने टेके बल्कि हिंदू प्रतिक्रिया को शांत करने के लिए फटाक से राम जन्मभूमि का ताला खोल दिया और उसके बाद वे स्वत ही आरएसएस तथा भाजपा के जाल में फँसते चले गए। भाजपा इस मुद्दे को यदा-कदा उठाती रही है और चुनावों में इसे कैश करा लेती है। इस समय तो भाजपा की पांचों अंगुलियां घी में हैं। सर्जिकल स्ट्राइक को वह अपने पक्ष में कर ले गई है। कांग्रेस उसका काउंटर नहीं कर पाई क्योंकि उड़ी हमले के बाद कांग्रेस ने परोक्ष रूप से पाकिस्तान के खिलाफ सरकार को भड़काया और अब जब सरकार ने कारनामा कर दिखाया तो उस पर रोने का कोई मतलब नहीं। यही हाल ट्रिपल तलाक के मामले में होने वाला है। पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इसे मुस्लिमों पर हमला बता रहे हैं। यह नुकसानदेह होगा क्योंकि धार्मिक आधार पर बटवारा कर देने से बहुसंख्यक समाज की राजनीति करने वाले पार्टी को ही फायदा पहुंचता है।
इसलिए अभी समय है। और राजनीतिक दल इसे हिंदू-मुस्लिम मामला नहीं बनने दें। इस्लामिक विवाह कानून से छेड़छाड़ सरकार खुद नहीं करेगी वर्ना उसे हिंदू विवाह कानून में भी फेरबदल करना पड़ेगा। हिंदू विवाह के अनुसार पति-पत्नी को कोई प्रमाणपत्र पुरोहित नहीं देता। नतीजा यह होता है कि हिंदू विवाह पद्घति के अनुसार जो विवाह होते हैं उन्हें प्रमाण पत्र पाने के लिए थाने तक भागदौड़ करनी पड़ती है वर्ना पासपोर्ट से लेकर आधार कार्ड बनवाने तक व्यर्थ की भागदौड़ करनी पड़ती है जबकि इस्लामिक विवाह पद्घति में इसकी कोई अनिवार्यता नहीं क्योंकि वहां पर काजी स्वयं प्रमाणपत्र देता है। इसके अलावा हिंदू पति कभी भी पत्नी को पत्नी मानने से नकार सकता है और बिना तलाक दिए दूसरी शादी भी कर लेता है। बेचारी पत्नी किसी तरह का न्याय कोर्ट से नहीं पा पाती क्योंकि उसके पास कोई सबूत ही नहीं होता। इसलिए विपक्ष और मुस्लिम संगठनों को चाहिए कि वे विवाह कानूनों में फेरबदल करने के पूर्व विधि आयोग को अपनी स्थिति से अवगत कराएं। तब ही कोई कारगर उपाय निकलेगा।
शंभूनाथ शुक्ल।
(ये लेख khabarnonstop.com से लिया गया है। लेखक इस पोर्टल का प्रधान संपादक है।)