दस्तरख़्वान को आग ना जला सकी

हज़रत अनस बिन मालिक (रज़ी) को हुज़ूर रसूल करीम स.व. के ख़ादिम ख़ास होने का शरफ़ हासिल है (१०) साल की कम
उमरी में हिज्रत करके मदीने में बस गए। अमीर‍ ऊल‍ मोमिनीन फ़ारूक़ आज़म (रज़ी) के दौर ख़िलाफ़त में बस्रा चले गए जहां (१०३) बरस की उम्र में वफ़ात पाई जिन ही से ये मशहूर वाक़िया मंक़ूल है कि एक बार हज़रत अनस (रज़ी) ने अपने घर पर चंद सहाबा-ओ-ताबईन की मेह्मान नवाजी कि। खाने का का एहतिमाम किया जिस के बाद शोरबे या सालन के धब्बों से दस्तरख़्वान ज़र्द सा होगया। चुनांचे मौलाना रुम अलैहि र्रहमा फ़रमाते हैं :
* तर्जुमा: एक (मेहमान) ब्यान करता है कि खाने के बाद हज़रत अनस (रज़ी) ने देखा कि दस्तरख़्वान (शोरबे से) ज़र्द रंग का होगया है।
तो……
* तर्जुमा:( दस्तरख़्वान को मेला और आलूदा पाकर) फ़रमाया ए ख़ादिमा! थोड़ी देर के लिए इस (दस्तरख़्वान) को (जल्ते हुए)
तन्नूर में डाल्दे आप की फ़रमांबर्दार अक़ल्मंद ख़ादिमा ने फ़ौरन आप के हुक्म की तामील की:

* तर्जुमा: (उस) होशमंद (ख़ादिमा) ने उसी वक़्त इस दस्तरख़्वान को आग (के शोलों से भरपूर) तन्नूर में डाल दिया
* तर्जुमा: सारे मेहमान इस (मुआमला) पर हैरान रह गए और वो दस्तरख़्वान (के जल जाने) से धुआँ (निकलने) के मुंतज़िर थे।
फ़ित्री तौर पर वहां मौजूद सब मेहमान इस इंतिज़ार में थे कि दस्तरख़्वान जल जाएगा और तनूर से धुआँ निक्लेगा। लेकिन ये
देख कर उन के ताज्जुब की इंतिहा ना रही कि:
* तर्जुमा: थोड़ी देर के बाद इस (ख़ादिमा) ने तन्नूर से (दस्तरख़्वान को) निकाला तो वो साफ़-ओ-सफ़ैद (था) और इस से तमाम मैल कुचैल दूर होगया।

ज़ाहिर है कि आग का काम है जलाना। आग ये नहीं देखती कि कपड़ा है लक्कड़ी है या कोई इंसानी हैवानी उज्व‌ है बल्कि जिस शए को भी आग से साबिक़ा पड़े उस को आग जलाकर ख़ाकस्तर कर देती है। लोगों ने जब देखा कि जल जाने के बजाए दस्तरख़्वान मेल और धब्बों से पाक-ओ-साफ़ “Dry Cleaned” होकर तन्नूर के बाहर आया है तो उन से रहा ना गया चुनांचे हज़रत अनस (रज़ी)से पूछने लगे:

* तर्जुमा: क़ौम (मेहमानों) ने पूछा ए प्यारे सहाबी ! (ये दस्तरख़्वान) जला क्यों नहीं और साफ़ भी होगया।
हज़रत अनस (रज़ी) ने मेहमानों के सामने उस की हक़ीक़त का यूं इन्किशाफ़ किया :
* तर्जुमा: (हज़रत अनस( रज़ी)) ने फ़रमाया कि (आँ हुज़ूर मुहम्मद) मुस्तफ़ा (स.व.) ने बारहा इस दस्तरख़्वान से अपने दस्त मुबारक और दहन शरीफ़ को पोंछा है (इसी की बरकत से ये आग के ज़रर से महफ़ूज़ रहा)
यानी जिस कपड़े को हुज़ूर स.व.के मुक़द्दस दस्त-ओ-लब का सिर्फ लम्स नसीब होगया हो तो एहतरामन उस को आग नहीं जलाती बल्कि साफ़-ओ-सुथरा कर देती है।

मौलाना रुम अलैहि र्रहमा इस रिवायत को नक़ल फ़रमाने के बाद इंतिहाई जज़्बा-ए-अक़ीदत-ओ-मुहब्बत के साथ अपने वालीहाना अंदाज़ में फ़रमाते हैं :

* तर्जुमा: ए वो दिल ! जो दोज़ख़ और (इस के) अज़ाब से डरता है एसे हाथ और लब का क़ुरब हासिल कर।
* तर्जुमा: जब एक बेजान (कपड़े) को ये शरफ़ (-ओ-एज़ाज़) बख्शा ( कि आग इस पर असर ना कर सकी) तो (फिर) एक आशिक़ की जान को क्या कुछ कुशाइश बख़्शेगा।

ख़ुलासा:एक बेजान कपड़े यानी दस्तरख़्वान को प्यारे मुस्तफ़ा स.व. के मुबारक हाथों और मुक़द्दस होंटों के लम्स-ओ-क़ुरब ने ये एज़ाज़ व शरफ़ बख़शदीया कि आग इस कपड़े को छू नहीं सकती और इस को जलाने की कभी जुर्रत नहीं कर सकती तो एसे सच्चे आशिक़-ए-रसूल को जिस का सीना इशक़ मुस्तफ़ा का मदीना हो और जिस का दिल मुहब्बत रसूल का ख़ज़ीना हो तो फिर कल के दिन जहन्नुम की आग इस के क़रीब आने और इस को जलाने की जुर्रत कैसे कर सकती है।

ये ख़्याल ना करें कि हुज़ूर स.व. के दुनिया से पर्दा फ़रमाने के बाद आप का क़ुरब हासिल करने की ये सआदत मुम्किन नहीं क्योंकि इरशाद नबवी है।
तर्जूमा: यानी उल्मा दुनिया के चिराग़ और अन्बीया के खल़िफ़ा और मेरे और अन्बीया के वारिस हैं। क़ियामत तक आने वाले इन वूरसा ओ नायीबीन मुस्तफ़ा स.व. के वसीला-ओ-तवस्सुत से क़ुरब रसूल-ओ-क़ुरब ख़ुदा का हुसूल मुम्किन है।