पश्चिमी यूपी: जहां वजूद के साथ-साथ बहुत कुछ दांव पर लगा है

फैसल फरीद

लखनऊ: 2013 में लोकसभा चुनाव से पहले सांप्रदायिक दंगों का गवाह रह चुका पश्चिमी उत्तरप्रदेश फिर से 2017 विधानसभा चुनावों में राजनीतिक पार्टियों एवं उनके दिग्गज नेताओं के भाग्य का फैसला करेगा।

राष्ट्रीय लोक दल जैसी राजनीतिक पार्टियों के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई होगी जबकि भाजपा के लिए 2014 लोकसभा परिणामों को दोहराने का अवसर होगा।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरफ एक नज़र देखें तो यहाँ – सहारनपुर, शामली,मुज़फ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाज़ियाबाद, नोयडा, हापुड़ और बुलंदशहर में 44 विधानसभा सीटें हैं। 2012 में, बसपा 15 सीटों पर जीत के साथ सभी पार्टियों से आगे थी, बाकि सीटों में से भाजपा 12 पर, सपा 10, कांग्रेस 4 और आरएलडी 3 सीटों पर विजयी हुयी थी।

2013 में सांप्रदायिक दंगों के बाद इस क्षेत्र का राजनीतिक तानाबाना बिलकुल पलट गया। जाटों और मुसलमानों के बीच साम्रदायिक सोहार्द लगभग ख़त्म हो गया। इसके परिणाम 2014 लोकसभा चुनाव में स्पष्ट रूप से दिखे जब भाजपा ने सभी लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की और आरएलडी प्रमुख अजीत सिंह तक अपनी सीट बचा न सके।

2017 में हालात धीरे धीरे सामान्य हो रहे हैं लेकिन साथ ही दुश्मनी के बीज भी बोये जा चुके हैं। बदले हुए हालात से विधानसभा चुनाव भी स्पष्ट रूप से प्रभावित होंगे। इन हालत के मद्देनज़र, भाजपा ने सहारनपुर से अपनी परिवर्तन यात्रा की शुरुआत की है जिसकी पहली सभा को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने संबोधित किया।

2012 में सपा शामली, बागपत, गाजियाबाद और नोएडा में एक भी सीट जीतने में नाकाम रही। बसपा भी शामली, मेरठ और हापुड़ में अपना खाता नहीं खोल सकी थी। भाजपा का 2012 में मुजफ्फरनगर, बागपत, हापुड़ और गाजियाबाद से कोई प्रतिनिधित्व नहीं था, लेकिन यह 2014 के लोकसभा चुनाव में यहाँ अच्छे मार्जिन के साथ जीती थी।

हालांकि क्षेत्र मुसलमानों की अच्छी आबादी है, लेकिन सपा उनके वोट को किसी भी समर्थन वोट के साथ जोड़ने में विफल रही थी। उदाहरण के लिए, सपा ने 2012 में सहारनपुर जिले में कुल सात सीटों से सिर्फ एक सीट देवबंद जीती थी लेकिन यह इसे बनाए रखने में विफल और कांग्रेस से उपचुनाव में हार गयी। इस प्रकार अब सपा का सहारनपुर से कोई विधायक नहीं है।

क्षेत्र विभिन्न राजनीतिक परिवारों के भाग्य का भी फैसला करेंगा। रालोद सुप्रीम अजित सिंह अब अपनी सीट बचने के लिए  लड़ रहे हैं। वे 2014 के लोकसभा चुनावों में बागपत सीट पर हार गए थे। वे फिर से जाट और मुसलमानों को साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं जोकि सांप्रदायिक दंगों के कारण एक बहुत मुश्किल लक्ष्य बन गया है। सहारनपुर में काजी परिवार भी अस्तित्व के लिए लड़ रहा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री रशीद मसूद, जो अब सपा में हैं, अपने बेटे शाज़ान मसूद के ज़रिये राजनीतिक विरासत को वापस लाने के लिए कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनका बेटा कोई प्रभाव बनाने में नाकाम रहा है। दूसरी ओर उनका भतीजा इमरान मसूद ने क्षेत्र में कांग्रेस के नेता के रूप में जमीन प्राप्त कर रहा है।

मुजफ्फरनगर से केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान को भाजपा के पक्ष में जाट मतदाताओं को बनाए रखने के लिए बड़ी जिम्मेदारी दी गयी है। भाजपा के लिए इस क्षेत्र में कई स्थानीय नेता हैं जो इस द्वेष के माहौल पर सवारी करना चाहते हैं।

इस बीच क्षेत्र में नेताओं द्वारा बहुत तेज़ी से दल बदले जा रहे हैं। क्षेत्र में मुसलमान अभी भी अपनी पसंद को लेकर अनिश्तित हैं और भाजपा इस मौके को किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती।