पुराना पुल दरवाज़ा, जो हाल हाल तक सिर्फ़ दरवाज़े की हैसियत से ही मौजूद था। और दबिर पूरा दरवाज़ा की तरह वहां से भी ट्रैफ़िक गुज़रा करती थी लेकिन इस तारीख़ी दरवाज़ा को मंदिर में तबदील कर दिया गया.
हिंदुस्तान हक़ीक़त में एक ऐसा गुलिस्ताँ है जिस में मुख़्तलिफ़ रंग के हामिल और कई रंगों के फूल अपनी ताज़गी-ओ-शादाबी और ख़ुशबुओं के ज़रिये एक हसीन मंज़र पेश करते हैं जो दुनिया के किसी और मुक़ाम पर नज़र नहीं आता। इस गुलिस्तां को सजाने संवारने और ख़ूबसूरत बनाने में जहां दीगर अब्ना-ए-वतन ने अहम रोल अदा किया है, वहीं मुस्लमानों ने उसकी आबयारी में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। इस सरज़मीन की हिफ़ाज़त के लिए अपना ख़ून बहाने से गुरेज़ नहीं किया।
इसलिए हम अमन के गंगा जमुनी तहज़ीब मुस्लमानों और उर्दू के दुश्मनों को याद दिलाते हैं कि हम ने अपने ख़ून से उस वक़्त इस ज़मीन को सींचा है, जब तक अंग्रेज़ों के इशारों पर मुजाहिदीन आज़ादी की मुख़्बिरी करके मुल्क -ओ-क़ौम से ग़द्दारी किया करते थे और तुम्हारा नापाक वजूद ग़द्दारी, मुख़्बिरी और अंग्रेज़ों की ज़हनी-ओ-जिस्मानी गु़लामी की गंदगी में डूबा हुआ था।
हिंदुस्तान का हर मुस्लमान बिना किसी हिचकिचाहट के ये कह सकता है कि इस मुल्क की सरज़मीन के चप्पा चप्पा से आज भी हमारे लहू की ख़ुशबू आती है। शरपसंदों,फ़िर्क़ा परस्तों और ग़द्दारों, दुश्मन अनासिर को बार बार ये याद दिलाना ज़रूरी होता है कि वतन-ए-अज़ीज़ के लिए मुस्लमानों बिलख़सूस ओलमा ने जिस तरह अपनी जानों का नज़राना पेश किया, उस की मिसाल मुल्क की तारीख़ में नहीं मिलती। फिर्कापरस्त सारे मुल्क में एक मंसूबा बंद मुजरिमाना साज़िश के ज़रीया मुस्लमानों को निशाना बना रहे हैं। मुस्लिम हुकमरानों की तामीर करदा फ़न तामीर की शाहकार इमारतों वासार की शनाख़्त मिटाने की नापाक कोशिशें कर रहे हैं।
इस सिलसिले में ऐसा लगता है कि ये अनासिर , हिंदुस्तान में मुस्लमानों के रोशन-ओ-ताबनाक हुक्मरानी और माज़ी की यादगार हैदराबाद को निशाना बनाने में मसरूफ़ हैं। आसार-ओ-क़राइन और उन की हरकात से यही ज़ाहिर होता है कि वो मुस्लिम हुकमरानों के तामीर करदा इमारतों, छल्लों, नदियों , तालाबों, बाग़ों, मीनारों, मक़बरों, पलों, मुसाफ़िर ख़ानों, दरगाहों, मसाजिद और दरवाज़ों की शनाख़्त मिटाने के दरपे हैं। यही वजह है कि तारीख़ी आसार की तैयारी-ओ-बर्बादी का सामान किया जा रहा है। शहर और मज़ाफ़ाती इलाक़ों में नाजायज़-ओ-गै़रक़ानूनी मंदिरें तामीर करने का एक सिलसिला चल पड़ा है। ये अमन दुश्मन हर मुक़ाम को मंदिरों में तबदील करने के ख़ाहां लगते हैं।
चाहे वो मूसा नदी हो, क़िला गोलकुंडा हो, गुम्बदान कुतुब-ए-शाही हो, उस्मानिया यूनीवर्सिटी हो, फ़लक नुमा पैलेस हो या फिर कोई पुल या मार्किट हो। फिर्कापरस्त हर मुक़ाम पर मज़हबी ढाँचे तामीर करने में मसरूफ़ हैं।। हाँ हम दरअसल बात कर रहे थे पुराना पुल दरवाज़ा, जो हाल हाल तक सिर्फ़ दरवाज़ा की हैसियत से ही मौजूद था। और दबिर पूरा दरवाज़ा की तरह वहां से भी ट्रैफ़िक गुज़रा करती थी लेकिन इस तारीख़ी दरवाज़ा को मंदिर में तबदील कर दिया गया हालाँकि दरवाज़ा से मुत्तसिल एक क़दीम दरगाह भी है लेकिन मुस्लमानों ने उसे वसीअ करने वहां छत डालने, दीवारें उठाने की कोशिश तक नहीं की।
यहां अफ़सोस के साथ ये भी कहना पड़ता है कि दरवाज़ा से क़रीब ही तारीख़ी क़ुतुब शाही मस्जिद तोपाख़ाना है, उस की बेशतर अराज़ी पर क़बज़े कर ली गयी हैं। इस तरह इस मस्जिद की 1400 मुरब्बा गज़ अराज़ी में से अब सिर्फ़ 300 गज़ अराज़ी बाक़ी रह गई है। हद तो ये है कि इस क़ुतुब शाही मस्जिद को जाने का रास्ता भी तक़रीबन बंद कर दिया गया। शहर और मज़ाफ़ाती इलाक़ों में सब कुछ होता रहा लेकिन हमारे अवामी नुमाइंदों को कभी इस बारे में सोचने का मौक़ा ही नहीं मिला। उन्हें तो बस अपने मुफ़ादात की फ़िक्र लाहक़ है। मस्जिद तोपखाना पुराना पुल की 1100 गज़ अराज़ी पर क़बज़ा किए गए। अवाम की क़ियादत करने वाले ख़ामोश रहे। पुराना पुल दरवाज़ा को मंदिर बना दिया गया।
नाम निहाद क़ाइदीन पर इस का कोई असर नहीं हुआ। बहरहाल जहां तक पुराना पुल दरवाज़ा का सवाल है, अगर इस का तहफ़्फ़ुज़ करना होता तो ये अनासिर पहले ही कर देते लेकिन इस में इन का कोई फ़ायदा नहीं था। इस लिए ख़ामोशी को ही उन लोगों ने होशियारी समझी। अब हुकूमत और महिकमा आसारे-ए-क़दीमा की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि इस तारीख़ी प्ले के तारीख़ी दरवाज़ा का तहफ़्फ़ुज़ करे। उस की अज़मत-ए-रफ़्ता को बहाल करने आगे आएं और अश्रार से उस की हिफ़ाज़त करे।