25 साल से ज्यादा वक्त तक इराक पर राज करने वाले सद्दाम हुसैन को बकरीद और नए साल से एक दिन पहले शनिवार सुबह फांसी दे दी गई थी। इस घटना को 10 साल का समय बीत गया लेकिन वहां के लोगों के दिलों दिमाग में सद्दाम हुसैन आज भी छाये हुए हैं। यह फांसी उन्हें साल 1982 के दुजैल हत्याकांड के आरोप में दी गई थी, जबकि उन पर अभी कई केस और चलने बाकी थे। इन दस साल के बाद आज भी लोग सद्दाम हुसैन को भुला नहीं पाए हैं। 27 साल की अमीना अहमद बताती हैं कि जब सद्दाम हुसैन इस दिन सुबह फांसी दी गई तब बाह मोसुल में उसके घर में थी। यह फांसी सभी इराकियों के लिए थी। अमीना के सहायक अहमद ने बताया कि उस वक़्त मैं जवान था। राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। निश्चित रूप से मुझे बहुत दुख हुआ। मुझे लगा कि इराक को ही मार डाला। सद्दाम हुसैन ने लंबे समय तक इराक का प्रतिनिधित्व किया। जब अमेरिकी सेना बगदाद में घुसी तो सद्दाम की बड़ी प्रतिमा को सैनिक ने अमेरिकी ध्वज से सद्दाम का चेहरा पोंछा और इसे नीचे गिराया या। हमारे देश में आकर ऐसी हरकत के लिए किसी ने भी नहीं पूछा था। दरअसल उनकी नज़र में हम एक तानाशाह के नीचे रह रहे थे। हमारे देश का यह नुकसान करने की करने के लिए किसी ने भी नहीं पूछा था। इस तरह के हालात उस दौरान बन गए थे। तेईस साल की हमदानी रिदा कहती है कि जब वह मात्र 13 वर्ष की थी जब सद्दाम को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। मुझे याद है कि उसके वालिद टीवी पर इस नज़ारे को देख रहे थे। कोई भी कभी भी विश्वास नहीं कर सकता कि यह दिन आ जाएगा। मुझे याद है, यह विशेष रूप से मेरे पिता और मेरे परिवार के लिए एक बहुत ही खास दिन था। मेरा परिवार भी पीड़ित परिवार था। मेरे पिता और मेरे परिवार का मानना था कि सद्दाम हुसैन को उनके अपराधों के लिए पर्याप्त सजा नहीं दी गई थी। 41 साल के नईम ज़ुबैदी नज़फ में कूफ़ा विश्वविद्यालय, मध्य इराक में एक डॉक्टर और व्याख्याता है। वह 31 साल के थे तब हुसैन फांसी चढ़ा दिया गया था। उन्होंने कहा कि यह शहर है शिया मुसलमानों का है, यहाँ के निवासी सद्दाम के दमनकारी शासन के अधीन थे। यह शहर पवित्र माना जाता है और उस दिन यहाँ जश्न का माहौल था। कुर्द मानवाधिकार कार्यकर्ता सुरूद अहमद बताते हैं कि उस दिन हलबजा शहर में थे कि उसने सुना कि सद्दाम हुसैन को रासायनिक हथियारों के साथ मारा था, लेकिन उस वक़्त वह चौंक गया था जब मीडिया सद्दाम की फांसी का सीधे प्रसारण कर रहे हैं। एक मानव अधिकार कार्यकर्त्ता के यह दुखद था हालाँकि वह भी सद्दाम के शासन के दौरान विस्थापित में से एक था, इस बारे में बात करने के लिए मुझे दर्द होता है। मैंने अपने परिवार के तीन सदस्यों को खो दिया है। दूसरी ओर अब अतीत में देखता हूं तो तब एक दुश्मन था, लेकिन अब तो एक सौ दुश्मन है और हम उन्हें नहीं जानते कि जो हमारे दुश्मन हैं, वह हमारे नेता थे। 28 वर्षीया निवेने का कहना था कि जब वह 18 साल की थी तब सद्दाम हुसैन को फांसी दे दी गई। मेरा परिवार और मैं मुस्लिम नहीं हैं, हम कैथोलिक रहे हैं। उसने साल 2008 में इराक छोड़ दिया है और अब न्यू हैम्पशायर में रहती है। उसने फांसी दिए जाने की घटना टीवी पर देखी थी लेकिन इससे उसका पूरा परिवार दुखी था। मेरे परिवार के अधिकांश लोग इस दौरान रोने लगी। सद्दाम हुसैन ने कभी मेरे या मेरे परिवार चोट नहीं पहुचाई। इराकी लोगों को सद्दाम हुसैन की तरह के हुक्मरानकी जरूरत है। आज सब देख रहे हैं कि इराक में क्या हो रहा है। .