इंसान कि आँखें जब बेलगाम हो जाती हैं तो अक्सर फ़वाहिश(बूरे कामों) की बुनियाद बन जाती हैं, इसी लिए मुहक़्क़िक़ीन के नज़दीक बदनज़री उम्मुल ख़्बाइस(बूराइयों की जड) की मानिंद(समान) है। इन दो सूराखों से ही फ़ित्नों के चश्मे उबलते हैं और माहौल-ओ-मुआशरे में उर्यानी-ओ-फ़ह्हाशी के फैलने का सबब बनते हैं।
इस्लाम ने इन दो सूराखों पर पहरा बिठा दिया। ये भी इस्लामी तालीमात(शीख्शा) का हुस्न-ओ-जमाल है कि हर मोमिन को निगाहें नीची रखने का हुक्म दिया। ना ही ग़ैर महरम पर नज़र पड़े और ना ही शहवत की आग भड़के। ना रहे बांस ना बजे बांसरी। उसूली बात है कि बुराई को इब्तेदा ही में ख़त्म करदों। आम मुशाहिदा है कि जिन लोगों की निगाहें बेक़ाबू होती हैं, उन के अंदर शहवत की आग भड़कती रहती है, यहाँ तक कि उन्हें फ़ह्हाशी का मुर्तक़िब करवा देती है।
इरशाद बारी ताला है: ईमान वालों से कह दीजिए कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, इस में उन के लिए पाकीज्गी है। बेशक अल्लाह ताला को ख़बर है इस की, जो कुछ वो करते हैं। (सूरा नूर)
क़ुरान मजीद की ये आयत मोमिनीन के लिए एक मुकम्मील पैग़ाम है। मुफ़स्सिरीन ने लिखा है कि इस आयत में तादीब, तंबीह और तहदीद का ब्यान है, जिस की तफ़सील दर्ज जे़ल(निचे लिखीत) है।
आयत के इब्तेदाई हिस्सा में तादीब है, मोमिनीन को अदब सिखाया गया है कि जिन चीज़ों का देखना उन के लिए जायज़ नहीं, उन से अपनी निगाहें नीची रखें। बंदों को यही जे़ब देता है कि अपने आक़ा की फ़र्मांबरदारी करें। इस से ये भी मालूम हुआ कि ग़ज़्ज़-एबसर(नीगाहें नीचि रख्ना) इब्तेदा है और हिफ़ाज़त फ़रज(शर्मगाह कि रख्शा) इंतिहा है, गोया ये दोनों लाज़िम-ओ-मल्ज़ूम हैं। पस जिस की निगाह क़ाबू में नहीं, उस की शर्मगाह क़ाबू में नहीं।
इन के लिए पाकीज़गी है मैं तंबीह है। ग़ज़्ज़-ए-बसर का फ़ायदा ये है कि दिलों में पाकीज्गी आएगी, गुनाह का वस्वसा ही नहीं पैदा होगा। इस में इन का अपना फ़ायदा है, इबादत में यक्सूई नसीब होगी, नफ्सानी, शैतानी, शहवानी वसावीस से जान छूट जाएगी और अगर इस हिदायत पर अमल नहीं करेंगे तो बदनज़री की वजह से सुकून क़लब(दील ओर दीमाग के आराम) से महरूम हो जाएंगे। दिल में हसरतों की भरमार होगी, फ़ित्ने में पड्ने का अंदेशा क़वी होगा।
बेशक अल्लाह ताला को ख़बर है इस की, जो कुछ वो करते हैं मैं तहदीद है। परवरदिगार आलम की तरफ़ से तंबीह है कि अगर बंदों ने इस हिदायत की परवाह ना की तो याद रखें कि अल्लाह रब उल इज्जत ग़ाफ़िल नहीं, वो उन की तमाम कार्यवाहीयों से वाक़िफ़ है, वो नाफ़रमानों से निमट्ना अच्छी तरह जानता है।
ये बात ज़हन नशीन(याद) रहे कि अगर इस्लाम ने मर्दों को साफ साफ शब्दों में अपनी निगाहें नीची रखने का हुक्म दिया है तो औरतों को भी फ़रामोश नहीं किया। चूँ कि मर्द और औरत दोनों का ख़मीर एक ही है, लिहाज़ा औरत की फ़ित्रत में भी शहवत रखी गई है। इन के बारे में इरशाद बारी ताला है: ईमान वालियों से कह दीजिए कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें। इन दोनों आयात का लब-ओ-लहजा इस हक़ीक़त को वाजेह कर रहा है कि आँखों की बेबाकी, शहवत में इंतिशार और शर्मगाह में उभार पैदा करती है। एसी हालत में इंसानी अक़ल पर पर्दा पड़ जाता है। शहवत खुली आँखों के बावजूद इंसान को अंधा बना देती है। इंसान गुनाह का इर्तिकाब करके ज़िल्लत-ओ-रुसवाई के गढ़े में जागीरता है। शहवत के मुआमले में जो हाल मर्दों का है, कम-ओ-बेश वही हाल औरतों का है। औरतें उमूमन जज़बाती होती हैं, जल्द मुतास्सिर हो जाती हैं। इन की निगाहें मैली हो जाएं तो ज़्यादा फ़ित्ने जगाती हैं, लिहाज़ा उन्हें भी चाहीए कि अपनी निगाहें नीची रखें।
हज़रत इमाम ग़ज़ाली रहमत उल्लाह अलैहि फ़रमाते हैं कि फिर तो आँख की ज़रूर हिफ़ाज़त कर, अल्लाह तुझे और हमें तौफ़ीक़ अता फ़रमाए(दें), क्योंकि ये हर फ़ित्ने और आफ़त का सबब है (मिनहाज उल आबदीन) इस से मालूम हुआ कि आँखों का फ़ित्ना निहायत मोहलिक है और अक्सर फ़ितनों और आफ़तों का बुनियादी सबब है।
हुज़ूर अकरम स.व.का इरशाद गिरामी है कि अपनी निगाहों को पस्त रखों और अपनी शर्मगाह की हिफ़ाज़त करो (अल-जवाब अल काफ़ी) हाफ़िज़ इब्न ए कय्यीम तहरीर फ़रमाते(लिख्ते) हैं कि निगाह शहवत की क़ासिद और पयाम्बर होती है और निगाह की हिफ़ाज़त दरअसल शर्मगाह और शहवत की जगह की हिफ़ाज़त है, जिस ने नज़र को आज़ाद कर दिया, इस ने इस को हलाकत में डाल दिया। नज़र ही इन तमाम आफ़तों की बुनियाद है, जिन में इंसान मुब्तला होता है। (अल-जवाब अल काफ़ी)
हुज़ूर स.व. का इरशाद है कि नज़र, इब्लीस के तीरों में से एक ज़हर आलूद(मे मीला हूआ) तीर है। बाज़ सलफ़ सालहीन का क़ौल(कहना) है कि निगाह एक तीर है, जो दिल में ज़हर डाल देती है।
हुज़ूर स.व. ने ये भी फ़रमाया कि आँखों का जिना(बालात्कार) देखना है (मुस्लिम) इस हदीस पाक से मालूम हुआ कि जो शख़्स किसी ग़ैर महरम के चेहरे पर शहवत भरी निगाह डाल्ता है, वो अपने दिल में इस के साथ जिना कर चुका होता है। सलफ़ सालहीन ने निगाह को बरीद उल इशक़ यानी इशक़ का पयाम्बर कहा है।
कई मर्तबा एसा होता है कि राह चलते या आते जाते ग़ैर महरम औरत सामने आजाती है तो इस के चेहरा पर नज़र पड़ जाती है, एसी सूरत-ए-हाल के बारे में हज़रत अली (रज़ी.) ने नबी करीम स.व.से सवाल किया तो नबी अकरम स.व. ने इरशाद फ़रमाया ए अली! एक मर्तबा नज़र पड़ जाने के बाद फिर दुबारा ना देखो, क्योंकि तुम्हारे लिए सिर्फ पहली नज़र माफ़ है, दूसरी नहीं (मीशकात शरीफ़) इस से मालूम हुआ कि पहली अचानक नज़र माफ़ है और अगर किसी वक़्त पहली नज़र ही इरादे से डाली गई तो वो भी हराम होगी। पहली नज़र माफ़ होने का मत्लब ये भी नहीं कि पहली नज़र ही इतनी भरपूर हो कि दुबारा देखने की ज़रूरत ही ना रहे। सिर्फ इतनी बात है कि अगर अचानक नज़र पड़ गई तो नज़रें फ़ौरन हटाने का हुक्म है।