मज़हब इस्लाम में एक ख़ास कशिश है

मेरा हरगिज़ ये इरादा नहीं कि मज़ाहिब के तक़ाबुल पर कोई लंबी चौड़ी बहस छेड़ूं और ना मेरा मक़सद इस्लाम का तन्क़ीदी जायज़ा लेना है, इसके बजाय मैं अपने कुबूल इस्लाम के बारे में एक वज़ाहती बयान देना चाहता हूँ।

ईसाई घराने में पैदा होने की वजह से मेरी इब्तिदाई तर्बीयत ईसाई अक़ीदा के मुताबिक़ हुई। बच्चों की तालीम-ओ-तर्बीयत आम तौर पर वालदैन के मज़हब के मुताबिक़ होती है और बाद में हम इस मज़हब को हक़ीक़ी दीनी समझ कर कुबूल कर लेते हैं, ताहम अजीब बात ये है कि हम दीगर चीज़ों को तो ख़ूब छानबीन करने के बाद कुबूल करते हैं, मगर मज़हब और बिलख़सूस ईसाईयत के नामलेवा उसे आँखें बंद करके कुबूल कर लेते हैं।

मसीही बाइबल जो ईसाईयत की निसाबी किताब है, इसे मैंने कई बार पढ़ा है। मेरे ख़्याल में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो, जो इसमें मज़कूर होलनाक ख़ूँरेज़ी, तबाही, हरामकारी, ज़िना बिलजब्र और फ़ह्हाशी से लबरेज़ वाक़ियात पढ़ कर काँप ना उठता हो।

हक़ीक़त ये है कि बाइबल पढ़ कर इंसान ईसाईयों के ख़ुदा के बारे में शकूक-ओ-शुबहात में मुबतला हो जाता है।

ईसाइत से जब मुझे कोई दिलचस्पी बाक़ी ना रही तो मैंने दुनिया के दीगर मज़ाहिब का मुताला शुरू किया और उनके इलावा जो दूसरे निज़ाम और फ़लसफ़ा हाय हयात थे, उनको भी पढ़ा।

इस तमाम तर मुताला का नतीजा लादीनीयत और दहरियत की सूरत में रौनुमा हुआ, फिर भी मेरा ये ईमान है कि इंसान के अंदर फ़ित्री तौर पर एक ख़ास किस्म का यक़ीन मौजूद होता है, जिसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं और जो हमेशा इंसान से कहता रहता है कि एक रब मौजूद है, जो कायनात का ख़ालिक़-ओ-मालिक है।

मगर ये रब ऐसा नहीं हो सकता जो ज़ुल्म, ख़ूँरेज़ी और होसनाकी को पसंद करे। इसी अंदरूनी यक़ीन ने मुझे मज़ाहिब के मज़ीद मुताला पर आमादा किया। इस‌ दौरान मुझे दीने इस्लाम में ख़ास कशिश महसूस हुई, क्योंकि ये क़रीन‍ ए‍ अक्ल है, फ़ह्हाशी और बेहयाई से पाक है और इंसान को क़ाइल करने में जबर से काम नहीं लेता।

मेरे इल्म में है कि इस्लाम इंसान की अक्ल को मुतास्सिर करता है, ये बौद्व मत की तरह मायूसी पैदा नहीं करता। मुझे ये भी मालूम है कि इस्लाम हुसूल-ए-इल्म की दावत देता है और इल्म हासिल करने वालों की हौसलाअफ़्ज़ाई करता है, जब कि तारीख़ के सफ़हात ऐसी मिसालों से भरे पड़े हैं कि ईसाईयत ने तहज़ीब और तरक़्क़ी की राह में रुकावटें खड़ी की हैं।

अब में बिलाझिजक ये बात कह सकता हूँ कि अगर मग़रिबी दुनिया में इस्लाम बेहतर तौर पर मुतआरिफ़ हो जाये तो दुनिया इसके पैरोकारों की तादाद में इज़ाफे पर हैरान हो जायें। इसके बेहतर तौर पर मुतआरिफ़ ना हो सकने की वजह ये है कि इस्लाम के बारे में मुस्तनद या तास्सुब से पाक लिट्रेचर बाआसानी दस्तयाब नहीं होता।

फिर भी मुझे यक़ीन है कि वक़्त इस सूरते हाल की इस्लाह ज़रूर कर देगा। आज में लाखों अहले ईमान के साथ मिल कर कलिमा तय्यबा
ला इलाहा इल्लल्लाहु मुहम्मदुर रसूलुल्लाह ( स०अ०व०) पढ़ते हुए ख़ुशी महसूस करता हूँ।

(हैरी ई हायनकल)