मुझे सहल हो गई मंजिलें वो हवा के रुख भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ मे आ गया की चिराग राह मे जल गए
वो लजाए मेरे सवाल पर की उठा सके न झुका के सर
उड़ी जुल्फ चेहेरे पे इस तरह की शबों के राज मचल गए
वही बात जो न वो कर सके मेरे शे”रो –नग्मा मे आ गई
वही लब न मै जिन्हें छु सका कदहे-शराब मे ढल गए
उन्हें कब के रास भी आ चुके तेरी बज्मे-नाज़ के हादीसे
अब उठे की तेरी नज़र फिरे जो गिरे थे गिर के संभल गए
मेरे काम आ गई आखरिश यही काविशें यही गर्दिशे
बढ़ी इस कदर मेरी मंजिलें की कदम खार निकल गए .
(“मजरूह” सुल्तानपुरी )