वाराणसी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के सोजईं गांव की तीन पढ़ी-लिखी मुस्लिम लड़कियों ने एक गांव की तस्वीर बदल दी। बुनकरों के इस गांव में इन तीनों लड़कियों ने शिक्षा का ऐसी रोशनी जगाई है कि अनपढ़ बच्चों के इस गांव में आज सभी बच्चे शिक्षा ले रहे हैं।
क्या है गांव के हालात?
सोजईं गांव वाराणसी से करीब बीस किलोमीटर दूर स्थित है। गांव में कच्ची मुस्लिम बस्ती है। बिजली-पानी की हालत भी काफी खस्ता है। इस गांव में अधिकतर बुनकर रहते हैं जिनका खर्चा भी मुश्किल से चलता है। इस गांव में गरीबों बच्चों के पढ़ने के लिए कुछ समय पहले तक बुनियादी इंतजाम भी नहीं था। लेकिन इस गांव में शिक्षा में इन तीन लड़कियों ने शिक्षा का बीड़ा उठाया है। तबस्सुम, तरन्नुम और रूबीना ने अपने हौंसले की बदौलत गांव की तस्वीर ही बदल दी है।
कौन हैं तबस्सुम, तरन्नुम और रूबीना?
तबस्सुम, तरन्नुम और रूबीना गांव के ही बुनकर खालिक अंसारी की बेटियां हैं। सात साल पहले ये तीनों अपने गांव में स्नातक तक पढ़ाई करने वाली अकेली शख्सियतों में शुमार थीं। इन तीनों बहनों साल 2010 में ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशन के साथ मिलकर पहले गांव में पढ़ने और नहीं पढ़ने वाले बच्चों का सर्वे किया। सर्वे के बाद इन्होंने गांव में स्कूल खोलने का फैसला लिया, लेकिन दिक्कत आ रही थी कि कहां स्कूल खोलें। क्योंकि स्कूल के लिए जमीन चाहिए थी।
गांव के मदरसे को बनाया स्कूल
इन तीनों ने स्कूल चलाने के लिए गांव के मदरसे से मदद मांगी। लेकिन मदरसे से जुड़े लोगों द्वारा मना कर दिया गया। फिर दोबारा बात करने पर मदरसे वालों ने बोला कि स्कूल में मदरसे के मौलवी साहब के साथ जुड़े लोग ही पढ़ाएंगे। लेकिन फिर जब इन लड़कियों ने जिद की तो मामला बन गया। जिस गांव में अधिकांश बच्चे प्राइमरी की शिक्षा हासिल नहीं किए थे आज वहां हर एक बच्चा पढ़ाई में लगा हुआ है।
क्या कहती हैं तबस्सुम?
तबस्सुम बताती हैं कि जिस मदरसे में स्कूल खोला गया है वहां वहां उर्दू और फारसी के अलावा कुछ नहीं पढ़ाया जाता था। मदरसे की हालत ऐसी थी कि यह हर साल एक या दो महीने चलने के बाद बंद हो जाता था। जब हम लोगों ने इनसे इजाजत मांगी तो मना कर दिया गया, लेकिन बाद में हमने उनको काफी समझाया और आखिरकार उन्होंने हामी भर दी। मदरसे में इन्होंने 10 साल से लेकर 18 साल तक के सभी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। शुरुआत में मदरसे में कोई ब्लैकबोर्ड नहीं था। जिसके बाद इन्होंने लोहे के दरवाज़े को ही ब्लैकबोर्ड बनाकर पढ़ाना शुरु कर दिया। धीरे-धीरे स्कूल में 170 बच्चे हो गए।
हमें पढ़ाई करने में दिक्कत हुई थी- रूबीना
रुबीना बताती हैं कि जब वह पढ़ाई के लिए दूर कॉलेज में जाती थीं तो लोग उनके अब्बू से कहते थे कि बेटियों को इतना दूर पढ़ने भेज रहे हो, कहीं इनके साथ कुछ बुरा हो गया तो किसको जवाब दोगे? रूबीना बताती हैं कि गांव लोग पढ़ाई करने पर बहुत तंज मारा करते थे। कई बार तो गांव के लड़के फब्तियां कसते थे। इन सबके बावजूद इन तीनों ने हौसला नहीं हारा और पढ़ाई जारी रखी और स्नातक तक की पढ़ाई करने वाली गांव की पहली लड़कियां बनीं।
अवार्ड के पैसों की पढ़ाई- खालिक
इन लड़कियों के पिता खालिक अंसारी बताते हैं कि उन्होंने इनकी पढ़ाई में कोई कमी नहीं है। लोगों ने उन्हें पढ़ाने से रोका लेकिन उन्होंने लोगों की नहीं सुनी। इनको स्नातक में पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। जिसके बाद इन्हें अवार्ड मिला तब जाकर इन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की।
इनपुटः-टूसर्किल.नेट
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