मोहसिन नक़वी की ग़ज़ल: “ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले”

ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले
डरें हवा से परिंदे खुले परों वाले

ये मेरे दिल की हवस दश्त-ए-बे-कराँ जैसी
वो तेरी आँख के तेवर समंदरों वाले

कहाँ मिलेंगे वो अगले दिनों के शहज़ादे
पहन के तन पे लिबादे गदा-गरों वाले

पहाड़ियों में घिरे ये बुझे बुझे रस्ते
कभी इधर से गुज़रते थे लश्करों वाले

उन्ही पे हो कभी नाज़िल अज़ाब आग अजल
वही नगर कभी ठहरें पयम्बरों वाले

तेरे सुपुर्द करूँ आईने मुक़द्दर के
इधर तो आ मेरे ख़ुश-रंग पत्थरों वाले

किसी को देख के चुप चुप से क्यूँ हुए ‘मोहसिन’
कहाँ गए वो इरादे सुख़न-वरों वाले

(मोहसिन नक़वी)