यादव-मुस्लिम फॉर्मूला पास बीजेपी का हिंदुत्व फ़ॉर्मूला फेल

पटना : बिहार में भाजपा के हार के वजूहात की तलाश शुरू हो गई है। कुछ लोग मोहन भागवत के रिज़र्वेशन के बारे में दिए गए बयान को ज़िम्मेदार मान रहे हैं तो कुछ इसकी वजह जातीय जोड़-तोड़ में खोज रहे हैं। वैसे तो भाजपा ने इस इंतिख़ाब को जीतने के लिए सभी फ़ॉर्मूले आज़माए। उसने गाय और पाकिस्तान जैसे मुद्दों को उठाकर फिरका वराना पोलराइजेशन की भी कोशिश की। मगर कुछ चला नहीं।

ये सही है कि बिहार इंतिख़ाब में मुद्दों की भीड़ हो गई थी और भाजपा भी हर मुद्दे को भुनाने की कोशिश में लगी रही। लेकिन सचाई ये है कि उसकी पॉलिसी के मरकज़ में लोकसभा इंतिख़ाब में कामयाब दिलाने वाले दो अहम मुद्दे ही इस बार भी सेंटर में थे। ये मुद्दे थे तरक़्क़ी और हिंदुत्व के।

भाजपा ने वोटरों को लुभाने के लिए इन दो मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठाया। वजीरे आजम ने एक बड़े पैकेज़ की ऐलान से लेकर नया बिहार बनाने का वादा करते वक़्त तक तरक़्क़ी की बुनियाद पर वोटरों को एटरेक्ट करने की कोशिश की। बाद के दौर में रिज़र्वेशन को मजहबी रंग देने, गाय और पाकिस्तान का मुद्दा उठाकर हिंदुत्व का सहारा लिया गया। लेकिन दोनों ही पटाखे फुस्स हो गए। असल में तरक़्क़ी के मामले में नीतीश कुमार का रिकॉर्ड ज़्यादा यक़ीनी  था। कोई ये मानने को तैयार नहीं था कि नीतीश कुमार ने काम नहीं किया। इसीलिए उनकी हुकूमत के ख़िलाफ़ हुकूमत मुखालिफत लहर भी दिखलाई नहीं दी। इसके उलटे इंतिख़ाब नतीजे बताते हैं कि उनके हक़ में लहर थी। ये भी एक हक़ीक़त है कि तरक़्क़ी के मेयार पर गुजिशता डेढ़ साल में मोदी हुकूमत की साख गिरी है। वे न अच्छे दिन ला पाए न महँगाई से राहत दे पाए। हाँ, आवाम पर बोझ ज़रूर बढ़ गया। ज़ाहिर है कि तरक्की के उनके दावे को संजीदगी से नहीं लिया गया।

बिहार में हिंदुत्व कार्ड के चलने के बारे में कुछ को पहले से ही शक था। बिहार में जातिगत सियासत हमेशा से बहुत ताक़तवर रही है और इसीलिए हिंदुत्व का असलाह वहाँ कम ही काम करता है। फिर हिंदुत्व का कार्ड इतना खुल्लमखुल्ला चला गया कि मुमकिन है कि वोटरों को उसका मक़सद पसंद न आया हो। इसका एक और असर ये पड़ा कि अक़लियत तबके लालू-नीतीश के साथ जमकर गोलबंद हो गया। लालू का एम-वाई (मुस्लिम-यादव) फुर्मूले  इससे बहुत मज़बूत हो गया। हालाँकि भाजपा ने जातीय सियासत को साधने में भी कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रखी थी। राम विलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा तो उसके साथ में पहले ही थे, मगर जीतनराम माँझी के आ जाने से वह और भी यकीन हो गई थी। पप्पू यादव वगैरह को साधकर उसने लालू यादव के वोट बैंक में सेंध लगाने का इंतज़ाम कर लिया था। लेकिन सामाजिक इंसाफ के ज़रिए पसमानदा जातियों पर अपनी पकड़ बना चुके लालू यादव और नीतीश कुमार के सामने उसका जोड़-तोड़ फेल हो गया। भाजपा की पॉलिसी के मुंदहम होने की एक बड़ी वजह नीतीश कुमार की कियादत भी है। उनकी सुबिया साफ़-सुथरी और कामकाजी है। भाजपा ने उनके सामने कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। मोदी का उनके मुक़ाबले उतरना उस पर भारी पड़ा।

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