हज़रत दानयाल अलैहि स्सलाम ने फ़रमाया उस फ़रिश्ते का नाम जो सप्नों के उमूर पर मुक़र्रर है सद्दीकून है (इस की क़ुव्वत का अंदाज़ा इस से लगा सकते हैं कि) इस के कानों के लो से गर्दन तक सात सौ साल की मुसाफ़त है। वही अशीया की सूरत मसालेह ख़ैर हो या शर, लौह महफ़ूज़ से हासिल करके अल्लाह ताला के नूर के ज़रीया लोगों को दिखाता है, इस सिलसिले में इस से कोई ग़लती नहीं होती।
इस फ़रिश्ते की मिसाल सूरज की सी है कि जब सूरज की रोशनी किसी चीज़ पर पड़ती है तो इंसान उस चीज़ को देख पाता है, इसी तरह ये फ़रिश्ता अल्लाह ताली के नूर के ज़रीया हर चीज़ की मारीफत कराता है, तुम्हारी रहनुमाई करता है और इस चीज़ की तुम्हें तालीम देता है, जो दुनिया-ओ-आख़िरत में ख़ैर-ओ-शर की सूरत में तुम्हें पेश आने वाली है और इस चीज़ की ख़ुशख़बरी देता है, जो पहले करचुके हो या आइन्दा तुम से सादीर होने वाली है और तुम्हें इस मुसीबत से डराता और तंबीया करता है, जिस के तुम मुर्तक़िब होचुके हो या आइन्दा इर्तिकाब का इरादा रखते हो।
ख़ाब दिखाने की हिक्मत ये है कि ताबीर का जुहूर अपने वक़्त में होगा, लेकिन इस के मुताल्लिक़ पहले ही मालूम होने से अगर डराने वाला ख़ाब हो तो कोई गम ना होगा और अगर अज़ क़बील मूबश्शीरात हो तो बार बार ख़ुशी होगी।
ज़्यादा तर रात के आख़िरी पहर में देखे जाने वाले ख़ाब सच्चे होते हैं और दिन में देखे जाने वाले ख़ाब भी सच्चे होते हैं। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ फ़रमाते हैं कि क़ैलूला में देखे जाने वाले ख़ाब ज़्यादा तर सच्चे होते हैं।
बाज़ उल्मा ताबीर ने कहा है कि इंसान ख़ाबों को रूह के ज़रीया देखता है और अक़ल से समझता है। रूह का मुस्तक़र वस्त क़ल्ब है और क़ल्ब का ताल्लुक़ दिमाग़ से है, रूह नफ़स के साथ मुअल्लक़ है। चुनांचे इंसान जब सो जाता है तो रूह चिराग़ या आफ्ताब की तरह दराज़ होती है। और अल्लाह के नूर और ज़िया की मदद से फ़रिश्ते की जानिब से दिखाए जाने वाले ख़ाब को देखती है और वापिस अपने नफ़स की तरफ़ आना एसा है, जैसा कि सूरज से बादल छट जाए और बेदारी की सूरत में ख़ाब में देखा जाने वाला वाक़िया उसे याद रहता है।
बाज़ की राय है कि हिस रुहानी हिस जिस्मानी के मुक़ाबले में अर्फ़ा-ओ-अशर्फ़ है, इस लिए कि हिस रुहानी से इंसान आइन्दा होने वाली अशीया को देखता है और हिस जिस्मानी से जो सामने मौजूद हों उसे देखता है।