हजारों आदिवासियों को बेघर करने वाला अभियान “सलवा जुडूम” फिर से शुरु होगा

छत्तीसगढ़ के आबोहवा में सलवा जुडूम अभियान की दोबारा आने की सुगबुगाहट शुरु हो गई है।आरोप लग रहे हैं कि सरकार वैसा ही माहौल बनाने में जुट गई है जैसा करीब एक दशक पहले सलवा जुडूम शुरू होने से पहले बना था। ये कयास हाल ही में एक्शन ग्रुप फार नेशनल इंटेग्रिटी (अग्नि) नाम के एक संगठन द्वारा बस्तर में एक ललकार रैली आयोजित करने के बाद तेज हुए हैं। यह रैली नक्सलियों के खिलाफ जनता को एकजुट करने के नाम पर आयोजित की गई थी। लेकिन कहा जा रहा है कि इसमें वक्ताओं ने जनता को नक्सलियों से सीधी लड़ाई करने के लिए उकसाया। अग्नि को सलवा जुडूम से जुड़े लोगों का संगठन कहा जाता है।

4 जून 2005 को सरकार के संरक्षण में शुरू हुए इस अभियान में बड़ी संख्या में आदिवासियों को हथियार थमाए गए थे। उन्हें स्पेशल पुलिस आफिसर यानी एसपीओ का दर्जा दे कर माओवादियों से लड़ने के लिए मैदान में उतार दिया गया था।सरकारी आंकड़ों पर यकीन करें तो 2005 में माओवादियों के खिलाफ शुरु हुए सलवा जुडूम के कारण दंतेवाड़ा के 644 गांव खाली हो गए। उनकी एक बड़ी आबादी सरकारी शिविरों में रहने के लिये मजबूर हो गई।

स्क्रॉल की खबरों के मुताबिक 17 सितम्बर को हुई ललकार रैली को संबोधित कर रहे वक्ताओं ने ग्रामीणों से कहा कि वे माओवादियों के गांव में आने पर उन्हें खाना-पानी न दें। यह भी कहा गया कि अगर अब कोई भी माओवादी उन्हें डराता-धमकाता है तो वे उसे पकड़कर पीटें और पुलिस के हवाले कर दें। इस रैली में छत्तीसगढ़ के आईजी शिवराम कल्लूरी और बस्तर के पुलिस अधीक्षक आरएन दास सहित कई पुलिस अफसर भी शामिल हुए थे।
उधर, विपक्ष ने इन बयानों को खतरनाक बताया है। मीडिया से बातचीत करते हुए प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव का कहना था कि साल 2005 में भी जब सलवा-जुडूम प्रारंभ हुआ था तब पुलिस प्रशासन ने नागरिकों के हाथों में हथियार थमा दिये थे। एक याचिका के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि माओवादियों से निपटने का काम पुलिस और सुरक्षाबलों का है। स्थानीय प्रशासन अपनी कमजोरी छिपाने के लिए किसी भी नागरिक को मौत के मुंह में नहीं धकेल सकता। उधर, आम आदमी पार्टी के संयोजक , रैली में नागरिकों को माओवादियों से लड़ने-भिड़ने के लिए उकसाया गया। यदि नागरिक को ही माओवादियों से लड़ना और भिड़ना है तो बस्तर में भारी-भरकम फौज और पुलिस की जरूरत ही क्या है।

सलवा जुडूम का अमानवीय पहलू

नक्सलियों से लड़ने के नाम पर शुरू हुए सलवा जुडूम अभियान पर आरोप लगते रहे हैं कि इसके निशाने पर बेकसूर आदिवासी होते हैं।
सलवा जुडूम यानी की शुरुआत 2005 में हुई थी। राज्य सरकार की सहमति और सहयोग से कई ग्रामीण आदिवासियों को हथियार मुहैया कराकर स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) बनाया जाता है। साथ ही 1500 से 3000 रुपये तक सैलरी भी दी जाती है। मानवाधिकार कार्यकताओं ने सलवा जुडूम को खूनी संघर्ष बढ़ानेवाला खतरनाक अभियान बताते है। उनका कहना था कि मासूम गांववालों को सरकार माओवादियों और नक्सलियों के खिलाफ हथियार बनाकर लड़ रही है। 2011 में मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गईं और उच्चतम न्यायालय ने सलवा जुडूम को अवैध घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार को एसपीओ से हथियार वापस लेने पड़े थे जाने से इस कयास को तेजी मिल रही है कि सलवा जुडूम का कोई बदला हुआ स्वरूप आने वाला है।