(आमिना बेगम) हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व० का इरशाद है कि हर आदमी ख़ताकार है और ख़ताकारों में सब से अच्छा वो है, जो मुख़लिसाना तौबा करे और अल्लाह की तरफ़ रुजू हो (इब्ने माजा, किताब अल ज़हद) ख़ता, गुनाह और लग़्ज़िश इंसानी फ़ित्रत है, कोई भी इस से मसतसनी नहीं। ख़ुशनसीब हैं वो बंदे, जो पूरे ख़ुलूस के साथ नादिम और ताएब हों।
दूसरी हदीस शरीफ़ में अल्लाह के नबी स०अ०व०का इरशाद है कि गुनाह से तौबा करने वाला बंदा बिलकुल उस बंदे की तरह है, जिस ने गुनाह किया ही नहीं। (इब्ने माजा)
बाअज़ रिवायात के मुताबिक़ इंसान गुनाहों से तौबा करने के बाद ऐसा बेगुनाह हो जाता है, जैसा कि वो अपनी पैदाइश के वक़्त बेगुनाह रहता है। एक हदीस शरीफ़ में ये भी है कि मोमिन बंदा जब कोई गुनाह करता है तो इसके दिल पर एक सयाह नुक़्ता लग जाता है। फिर अगर इस ने तौबा-ओ-इस्तिग़फ़ार कर लिया तो वो सयाह नुक़्ता ज़ाइल होकर क़लब साफ़ हो जाता है।
लेकिन अगर वो गुनाह करता रहा तो दिल की सयाही बढ़ती जाती है, यहां तक कि पूरे दिल पर छा जाती है। यही वो ज़ंग है, जिसका अल्लाह ने ज़िक्र फ़रमाया है कि उन के दिलों पर उन के आमाल ए बद का ज़ंग और मैल चढ़ गया है।
इमामे नौवी रह० ने रियाज़ुस सालेहीन में तहरीर फ़रमाया है: उल्मा कहते हैं कि तौबा हर गुनाह पर वाजिब है। अगर गुनाह का मुआमला बंदे और अल्लाह के दरमियान हो, किसी आदमी के हक़ से इसका ताल्लुक़ ना हो तो इस सूरत में तौबा की तीन शर्तें हैं।
अव्वल ये कि गुनाह से रुक जाये, दोम ( दूसरा) ये कि गुनाह पर नादिम हो, सोम ( तीसरा) ये कि फिर उस गुनाह का इआदा ना करने का अज़्म मुसम्मम करे। ये हुक़ूक़ अल्लाह का मसला है, अगर इन शर्तों में से कोई एक शर्त भी ना पाई गई तो तौबा दुरुस्त ना होगी, और अगर गुनाह का ताल्लुक़ हुक़ूकुल-ईबाद से हो तो इसकी चार शर्तें हैं।
तीन शर्तें तो वही हैं जो अभी ज़िक्र की गईं, जब कि चौथी शर्त ये है कि हक़दार को इसका हक़ अदा करे। अगर इसका माल लिया था तो वो उसे लौटा दे और अगर किसी की ग़ीबत की थी तो इस से माफ़ी मांगे वग़ैरह। इस तरह ज़रूरी है कि अपने तमाम गुनाहों से तौबा करे और अगर बाअज़ गुनाहों से तौबा करे तो अहले हक़ के नज़दीक वो तौबा दुरुस्त होगी और दूसरे गुनाह बाक़ी रहेंगे।
तौबा के वजूब पर किताब ओ सुन्नतत और अजमा-ए-उम्मत के वाज़िह दलायल मौजूद हैं। ( रियाज़ुस सालेहीन, बाब अल तौबा)
तौबा उन लोगों के लिए नहीं है, जो अपने ख़ुदा से बेखौफ और बेपरवाह होकर तमाम उम्र गुनाह पर गुनाह करते चले जाएं और फिर ऐन उस वक़्त जब कि मौत का फ़रिश्ता सामने खड़ा हो माफ़ी मांगने लगें। इस सिलसिले में हुज़ूर नबी करीम स०अ०व० का इरशाद है कि अल्लाह तआला बंदे की तौबा उस वक़्त तक क़बूल करता है, जब तक कि मौत के आसार शुरू ना हों। (तिरमिज़ी ओ इब्ने माजा)
फ़िरऔन की मिसाल हमारे सामने है, जो ज़िंदगी भर अल्लाह और इसके रसूल की मुख़ालिफ़त करता रहा, तमाम मोजज़ात और निशानीयों का इनकार करता रहा, ख़ुद भी राह-ए-हक़ से दूर रहा और दूसरों को भी रोकता रहा। मगर जब ख़ुदा का ग़ज़ब देखा तो कहने लगा अब मैं ईमान लाया।
अल्लाह तआला का इरशाद है कि और हम बनी इसराईल को समुंद्र से गुज़ार ले गए। फिर फ़िरऔन और इसका लश्कर ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती की ग़रज़ से उन के पीछा चला, हत्त कि जब फ़िरऔन डूबने लगा तो बोल उठा मैंने मान लिया कि ख़ुदावंद हक़ीक़ी इसके सिवा कोई नहीं है, जिस पर बनी इसराईल ईमान लाए और मैं भी सर इताअत झुका देने वालों में से हूँ।
जवाब दिया गया अब ईमान लाता है, हालाँकि इस से पहले तक तो नाफ़रमानी करता रहा और फ़साद करने वालों में से था। (सूर: यूनुस ९०,९१)
हम पर अल्लाह तआलाका कितना बड़ा एहसान है कि वो हमारी ख़ताओं और गफलतों को माफ़ फ़रमाता है। हमें बार बार मुतवज्जा फ़रमाता है कि हम अपनी ग़लतीयों से बाज़ आ जाएं और इस के दामन रहमत में पनाह लें।
क़ुरान-ए-पाक में जगह जगह अल्लाह तआला ने तौबा की ताकीद फ़रमाई है। अल्लाह तआला अपने बंदों पर बेहद मेहरबान है, उसे अपनी मख़लूक़ात से कोई दुश्मनी नहीं कि वो उन्हें सज़ा देना चाहता है और वो अपने बंदों को तकलीफ़ दे कर ख़ुश होता है। वो तो रहमान-ओ-रहीम है, मेहरबानी करना उस की सिफ़त है। बंदा ख़ाह कितना ही क़ुसूर कर चुका हो, लेकिन जब भी वो अपने क़ुसूर का एतराफ़ करे और शर्मिंदा होकर अपने रब से रुजू हो तो इस के दामन रहमत में बड़ी वुसअत है, वो अपनी पैदा की हुई मख़लूक़ से बेहद मुहब्बत फ़रमाता है, इसका अज़ाब तो इन्ही लोगों के लिए है, जो अपनी सरकशियों में हद से गुज़र जाएं और किसी तरह फ़साद फैलाने से बाज़ ना आएं।