हाशिमपुरा क़त्ल ए आम:: ‘इंसानियत का क़त्ल हुआ है, न कि मुसलमान का’

नई दिल्ली : मज़हब जोड़ता है, तोड़ता नहीं। गंग नहर पुल पर हर तरफ बिखरा खून चीख-चीखकर कह रहा था कि यहां इंसानियत का क़त्ल हुआ है, न कि मुसलमान का। आंखों के सामने चचा और भाई की लाश पड़ी थी। इस क़त्ल ए आम ने मेरी अंतर की रूह को झकझोर कर रख दिया। उस वक्त मेरी उम्र महज 17 साल थी। आज इतने साल गुज़र जाने के बाद भी इंसाफ नहीं मिलने से ठगा हुआ महसूस कर रहा हूं। क़त्ल ए आम के पलों का जिक्र करते हुए मुजीबुर रहमान ज़ज़्बाती हो गए।

नस्ली तौर से बिहार के दरभंगा वाके धमसाइन गांव के रहने वाले मुजीबुर्रहमान ने बताया कि, 22 मई 1987 को अचानक पुलिस फैक्ट्री में आई और मुझे साथ चलने को कहा। गंग नहर पुल पर ट्रक रोककर पुलिस ने दो गोली मारी। एक गोली सीने में लगी, जबकि दूसरी पांव में। इसके बाद एक शख्स ने नहर में धकेल दिया। थोड़ी देर बाद होश आया तो खुद को नहर के किनारे पाया। किनारे पर दो और लोग खून से लथपथ पड़े हुए थे।

किसी तरह से घुटनों के बल बाहर निकला तो सामने पुलिस को देख इतना डर गया कि पैंट में पेशाब कर दिया। पुलिस अहलकार ने फौरन बंदूक तान दी, कहा मार दूं या छोड़ दूं। मैंने गिड़गिड़ाते हुए उससे कहा कि पहले ही दो गोली लगी है, जान कभी भी निकल सकती है, इतना कहते हुए वहीं गिर पड़ा। इसके बाद उसी पुलिस वाले ने मुझे पुलिस वैन में बिठाकर अस्पताल पहुंचाया। मुरादनगर थाने में मेरा बयान दर्ज कराया गया।

मैंने इस क़त्ल आम में अपने चचा मोहम्मद अज़ीम और भाई मोहम्मद कौसर को खोया। चचा बुजुर्ग थे, उनकी क्या गलती थी जो उन्हें गोली मार दी गई।

डर के मारे दो साल तक हाशिमपुरा नहीं गया। हालांकि, बाद में अदालत की कार्रवाई के लिए जाना पड़ा। वहां पहुंचा तो पुराने दोस्तों व भाइयों से मिला। इसके बाद फैसला किया कि जब तक इंसाफ नहीं मिल जाता मैं हाशिमपुरा में ही रहूंगा। उन्होंने कहा, उत्तर प्रदेश में अक्सर दंगा होने की खबरें आती हैं। जिसे सुनकर रूह कांप जाती है। कई बार तो मेरठ के आसपास के इलाकों में दंगा भड़कने की खबर सुनकर दरभंगा भाग गया।