रसूल अकरम स.व.से ख़ुद को वाबस्ता करने, उन के गुलामों में अपने आप को शामिल-ओ-शुमार करवाने की सई-ओ-काविश में आशीक़ान ए सरकार दो आलम स.व. ने बिसात भर कोशिश को अपना शीआर बना लिया, यूं अक़ीदत-ओ-मुहब्बत के ये जज्बात बसूरत शेर उजागर होने लगे।
शूअरा ए अरब-ओ-अजम ने इस बाब में कैसी कैसी वाबस्तगी का इज्हार किया, इस का अंदाज़ा लगाया जाना मुहाल है, कम अज़ कम मेरे लिए इस का अहाता करना नामुम्किन है। लेकिन नात रसूल की दौलत लाज़वाल को समेटे, इन ही के ज़िक्र-ओ-फ़िक्र में डूबे, वालीहाना तौर,तरीक़ों से दो चार आज एक एसे आशिक़ रसुल के कलाम की बाबत गुफ़्तगु मक़सूद है, जिस के बारे में अगर ये कहा जाए तो बेजा ना होगा कि जिसे मब्दा-ए-फ़य्याज़ ने अपने फ़ज़ल-ओ-करम से मद्दाहान ए सरवर आलम स.व. के जुमरा-ए-ख़ास में क़बूलीयत का ख़िलअत ख़ास अता किया हो। मेरी मुराद सय्यद सईद उद्दीन हुसैनी उल-मुतख़ल्लिस बह सय्यद से है, जो इन नातगो शुअरा में से एक थे, जिन्हों ने उमर भर सना ए किरदगार, नात आक़ा ए नामदार, मदह ए सहाबा किबार, सलाम अहल-ए-बैत अतहार और मंक़बत ओलीया ए ज़ी वक़ार के सिवा किसी और के लिए अपना क़लम नहीं उठाया।
सय्यद साहिब मरहूम सरज़मीन दक्कन के माया नाज़ क़ाबिल सद इफ़्तिख़ार आशिक़ रसूल डाक्टर सय्यद अहमद हुसैन माइल दक्कनी के शागिर्द अज़ीज़, साहिब रब्त-ओ-निसबत बुज़ुर्ग आशिक़ रसूल हज़रत सय्यद शाह अबद उल-वह्हाब आसम कादरी नलगूंडवी के जांनशीन और हज़रत ख़्वाजा अबद उल्लाह सिद्दीक़ी के तिल्मीज़ अज़ीज़ थे। शायरी के कुल अस्नाफ़ ग़ज़ल, रुबाई, किता, क़सीदा, मुख़म्मस, मुसद्दस, मुस्तज़ाद सभी में तबा आज़माई की, लेकिन हर जगह इस इल्तिज़ाम-ओ-एहतिमाम के साथ कि वो नात रसूल से मामूर हूँ।
सय्यद साहिब बहुत ज़ूद गो, बिसयार नवेस थे। शेर बड़ी तेज़ी से मौज़ूं करते। मेरा मुशाहिदा है कि वो हमेशा सफ़र-ओ-हज़र, हर हालत में फ़िक्र सुख़न (नात गोई) में मसरूफ़-ओ-मुनहमिक रहते। गोया ज़िक्र महबूब रब उलआलमीन से एक पल के लिए भी ग़ाफ़िल ना रहते, शायद नफ्स की आमद-ओ-शुद का तक़ाज़ा भी यही है।
सय्यद साहिब एक रासिख़ उल-अक़ीदा सच्चे आशिक़ ए रसूल की सूरत से हमेशा मेरी नज़रों में रहे, इन का सीना जज्बात इशक़ नबवी का गंजीना था, वो अपने पाकीज़ा जज्बात-ओ-एहसासात को दिल्कश ओ मूअस्सीर अंदाज़ से शेरों में समो देते थे और कहीं भी अदब-ओ-एहतिराम से सुरमू इन्हिराफ़ ना करते, क्योंकि वो जानते थे मुक़ाम-ओ-मर्तबा रसूल अल्लाह स.व. का क्या मुआमला है:
5 शायरी ख़ाह किसी ज़बान की हो, जज्बात-ओ-एहसासात की तर्जुमान होती है। शेर, नस्र के मुक़ाबला में लतीफ़, पुरकैफ़, शीगुफ़्ता और तासीर से भरपूर होता है और जब इस में अक़ीदत-ओ-मुहब्बत की शमूलीयत हो जाए तो इस की नग़मगी, मुसर्रत-ओ-शादमानी ग़ैरमामूली हो जाती है। लफ़्ज़ी शरह ओ निस्बत तश्बीहात ओ इस्तेआरात की दिलआवेज़ी, सनाए -ओ-बदाए का बरजस्ता इस्तिमाल, कलाम की रवानी, मौज़ूनी तबा, क्या कुछ नहीं पैदा हो जाता। हुस्न ब्यान, लज़्ज़त ब्यान, मुहाकात शायरी का वालिहाना अंदाज़ बरजस्तगी शायर को ना जाने किन किन मुक़ामात की सैर कराती है और ये सब कमाल-ए-फ़न उस की इस्तिदाद-ओ-क़ाबिलीयत इशक़ से इबारत है। इशक़ का रुज्हान हर इंसान में तब्इ होता है, इसी तब्इ मेलान की बदौलत हर मौजूद अपने मा फ़ौक़ तक पहुंचना चाहता है। इसी तरह मौजूदात आलिम, इर्तिक़ा के मनाज़िल तय कर रहे हैं, जिस की आख़िरी मंज़िल कमाल है।
सय्यद साहिब इसी कमाल से मुत्तसिफ़ थे, वो अपने तास्सुरात के लिहाज़ से एक आरिफ़ और सूफ़ी नज़र आते हैं, उन के साज़ रूह का तार तार मिज़्राब ए मारीफत से मुरतइश था, उन के ख़रमन ए तख़ैयुल में इर्फ़ान हक़ और मुहब्बत रसूल की बिज्लियां कौंदती नज़र आती हैं, इन का रब्त-ओ-ताल्लुक़ अमली तौर पर सय्यद कुल स.व. से इस क़दर हम आहंग दिखाई देता है कि इशक़-ए-मजाज़ी, इशक़-ए-हक़ीक़ी की सूरत में जल्वागर होजाता है। वो उम्र भर दुनिया नासूबात के ख़ुशामद्दा ना पहलू से यकसर बेनीयाज़ अपनी धून में मगन, इशक़ ख़ुदा-ओ-इशक़ रसूल के गीत अलाप्ते रहे।
मुख़्तसर ये कि सय्यद साहिब का मजमूआ कलाम “सरवर ए आलम में “जहां नातिया शायरी का उरूज-ओ-औज नज़र आता है, वहीं कमाल अक़ीदत, जमाल मुहब्बत का क़रीना क़दम क़दम पर हरारत ईमानी की सआदत से बहरावर करता है।