क़ुरान शरीफ‌

ए ईमान वालो! जब (तुम्हें) बुलाया जाए नमाज़ की तरफ़ जुमा(शुक्रवार) के दिन तो दौड़कर जाओं
अल्लाह के ज़िक्र(याद) की तरफ़ और (फ़ौरन)तूरंत‌ छोड़ दो ख़रीद-ओ-फ़रोख़त,(माल लेना ओर बेच्ना) ये तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम (हक़ीक़त को) जानते हो। फिर जब नमाज़ मुकम्मील(समाप्त) हो जायें तो फैल(नीकल) जाओं ज़मीन में और तलाश करो अल्लाह के फ़ज़ल (दया) से , और कसरत से(बहूत ज्यादा) अल्लाह की याद करते रहा करो ताकि तुम फ़लाह(काम्याबी) पाओं। और (बाज़ लोगोंने) जब देखा किसी तिजारत(ब्यापार‌) या तमाशा को तो बिखर गए(नीकल पडें) उस की तरफ़ और आप को खड़ा छोड़ दिया। (ए हबीब! उन्हें) फ़रमाईए(आदेश दीजीयें) कि जो नेमतें(उप्हार) अल्लाह के पास हैं, वो कहीं बेहतर(अछे) हैं लह्व (खेल) और तिजारत (ब्यापार) से, और अल्लाह ताला बेहतरीन रिज़्क देने वाला है। (सूरा अलजुमा )
इस रुकु में नमाज़ जुमा(शुक्रवार की नमाज‌) के अहकाम और आदाब का ज़िक्र फ़रमाया जा रहा है। यहां मुख़ातब सिर्फ फ़र्रजंदाँ इस्लाम(ईस्लाम के मानने वालें) हैं। इरशाद होता है कि ए ईमान वालो! जब तुम नमाज़ ए जुमा की अज़ान(शूक्रवार की नमाज का बूलावा) सुनो तो जलदी से अल्लाह के ज़िक्र (नमाज) की तरफ़ पहुंचने की कोशिश करो और इसी वक़्त ख़रीद-ओ-फ़रोख़त बंद कर्दो।

बुलाने से मुराद जुमा की अज़ान है और अहनाफ़(हनफी काइदों को मान्ने वालों) के नज़दीक ये पहली अज़ान है, जो ख़ुतबा से कुछ देर पहले दी जाती है। वो तमाम मशागील(काम काज) जो जुमा की हाज़री में रुकावट बन सकें, इन तमाम को तर्क(छोड्ना) करना ज़रूरी है (अवश्यक),और ख़रीद-ओ-फ़रोख़त का ज़िक्र इस लिए हुआ कि जुमा के रोज़ लोग बाहर से आते और बेचने के लिए अपना सामान भी लाते हैं और शहर से अपनी ज़रूरीयात खरीदकर भी ले जाते। शहर से मुल्हिक़ा बस्तीयों (नज्दीकी देहातों)के लोगों के आने की वजह से जुमा के दिन बड़ी चहल पहल हो जाती और ख़रीद-ओ-फ़रोख़त का बाज़ार ख़ूब गर्म हो जाता, इस लिए ख़ुसूसीयत से ख़रीद-ओ-फ़रोख़त छोड़ने का हुक्म फ़रमाया गया। यानी ख़रीद-ओ-फ़रोख़त और जुमला मशागील(तमाम काम काज‌) को पसेपुश्त डाल(छोड) कर मुकम्मील तैयारी से नमाज़ जुमा में हाज़िरी तुम्हारे लिए तमाम चीज़ों से ज़्यादा नफ़ा बख़श है।

ज़माना जहालत में(अस्भ्यता के दोर में) इस दिन को अरूबा कहा जाता था। बाज़ रीवायात में ये है कि हुज़ूर अकरम (स.व.) के जद ए अमजद(दादा के दादा) काब बिन लूई उस रोज़ क़ुरैश को इकट्ठा करके ख़ुतबा दिया करते थे और उन्हें हुज़ूर सरवर आलम (स.व.) की बेसत(आने) की ख़ुशख़बरी सुनाते और उन्हें ताकीद करते कि हुज़ूर (स.व.) पर ईमान लायें और आप की नुसरत(सहायता) में ग़फ़लत (असावधानी)से काम ना लें।

वाज़िह रहे कि काब बिन लुई और हुज़ूर (स.व.) की बेसत के दरमीयान पाँच सौ साठ साल का फ़ासिला है।
जुमा फ़र्ज़एन(अवश्यक) है, इस की फ़र्ज़ीयत किताब-ओ-सुन्नत(कुरान ओर हदीस) और इजमा-ए-उम्मत(जन्ता की बहूमती) से साबित है और इस का इनकार कुफ्र है। क़ुरान-ए-करीम की ये आयत जुमा की फ़र्ज़ीयत की मुहकम(मज्बूत) दलील है। इस के इलावा बकसरत(बहुतसारी) अहादीस भी मौजूद हैं, जिन से इस की फ़र्ज़ीयत का पता चलता है।

हज़रत इबन ए उमर‌ और हज़रत अबू हुरैरा र.जी. कहते हैं कि हम ने नबी करीम स.व. को मिंबर पर बैठे हुए ये फ़रमाते(आदेश देते) सुना कि जो लोग जुमा तर्क करते (छोडतें ) हैं, वो इस से ज़रूर बाज़ आजाऐं, वर्ना अल्लाह ताला उन के दिलों पर महर(ठप्पा) लगा देगा और वो ग़ाफ़िल हो जाएंगे। ( मुस्लिम)
हूजूर ए अकरम स.व. ने फ़रमाया जिस ने नमाज़ जुमा को मामूली और हक़ीर (तूच्छ) समझते हुए तीन जुमे तर्क किए, अल्लाह ताला इस के दिल पर महर लगा देगा। (अबूदावुद, तिरमिज़ी, नसाई)
हज़रत जाबिर रज़ी कहते हैं कि रसूल उल्लाह स.व. ने फ़रमाया जो अल्लाह और क़ियामत पर ईमान रखता है, इस पर जुमा फ़र्ज़ है, सिवाए मरीज़, मुसाफ़िर, औरत, नाबालिग़(अवयस्क) और ग़ुलाम के। जो शख़्स(व्यकती) किसी लह्व‍ओ‍ लइब(खेल कूद) या तिजारत के बाइस इस से बेपरवाही करता है, अल्लाह ताला उस से बेपरवाही करेगा और अल्लाह ताला ग़नी और हमीद(धनवान ओर सदाचारी) है। (दार क़ुतनी)