अखल़ाकी अ़कदार कमज़ोर हो रहे हैं -जस्टिस बी. सुभाषण रेड्डी

जस्टिस बोल्लमपल्ली सुभाषण रेड्डी ज्युडिशियरी के मैदान में इज्जत की निगाह से देखे जाते हैं। केरल और मद्रास उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस रहे और आन्ध्र प्रदेश ह्यूमन राइट्स कमिशन के सदर के तौर पर अपनी खिदमत अंजाम देने के बाद अब प्रदेश के लोकायुक्त के ओहदे को संभाल रहे हैं। सुभाषण रेड्डी की पैदाइश 2 मार्च 1943 को बाग अम्बरपेट के एक ज़मीन्दार ख़ानदान में हुई। सुलतान बाज़ार और चादरघाट में स्कूल की तालीम हासिल करने के बाद उन्होंने कानून की डिग्री हासिल की और फिर एडवकेट और जज बन गये। अपने फैलसों और इन्सानी ह़ुक़ूक (मानवाधिकार) के बारे में अटल रवैये की वज्ह से मशहूर रहे। उनसे मुल़ाकात के दौरान कई मुद्दों पर बातचीत हुई, जिसका कुछ हिस्सा यहाँ पेश है।
एफ एम सलीम

बचपन
मेरा जन्म बाग़ अम्बरपेट में हुआ। दादा बोल्लमपल्ली वेंकट रेड्डी निज़ाम के पास पेशकार थे। उप्पल, रामंतापुर, अम्बरपेट और थल्लीअनारम में उनकी 240 एकड़ ज़मीन थी। हरे भरे लहलहाते खेतों में मैं ख़ूब घूमा करता। गेंहू, धान और दालों की फसलें होतीं। गंगा बावली, योरकुंटला बावली और कोत्ता बावली, तीन कुएँ थे, जिनसे खेतों को पानी दिया जाता था। जास्मीन फूल मुझे बहुत पसंद था। खेलों में फूलों के अलावा फल और सब्ज़ी भी उगायी जाती। संतरे और सेब के अलावा हर तरह के फल यहाँ मिलते। शुरू में एक पंडितजी के घर पढ़ने जाता था। पेशकार का लड़का होने की वज्ह से अलग बिठाकर पढ़ाया जाता। पांचवीं में सुलतान बाज़ार स्कूल में दाखिल कराया गया। घर से स्कूल झटके (घोड़ा गाड़ी) में आते-जाते थे। यहाँ पीपल का एक बहुत बड़ा पेड़ था, जिसके नीचे बैठकर हम पढ़ा करते थे। यहाँ के प्रिंस्पल जॉन थे। बाद में जब जॉन वापिस लंदन चले गये तो पिताजी ने कहा कि अब स्कूल से जॉन चला गया तो उस स्कूल में क्या पढ़ोगे। वहाँ से फिर चादरघाट स्कूल आबिड्स में दाखिल कराया गया। यहाँ पेरवल्ली लिंगय्या शास्त्री अच्छे टीचर थे। यहीं पर मैंने तेलुगु के कवि श्री श्री, कालोजी, गुर्रम जाशवा, दाशरथी और सी. नारायण रेड्डी को पढ़ा।

पिताजी को हिन्दी सिखाई
पिताजी निज़ाम सरकार में नौकर थे। हैदराबाद रियासत के इंडियन यूनियन में शामिल होने के बाद उनके लिए दो मुतबादिल थे। या तो रियासती हुकूमत के साथ रहें या फिर मर्कज़ी हुकूमत के लिए काम करें। उसी दौरान उन्हें मालूम हुआ कि मर्कज़ी हुकूमत की ज़ुबान हिन्दी है, तो उन्होंने हिन्दी सीखनी शुरू की। इसके लिए उन्होंने मुझी से हिन्दी सीखनी शुरू की और बाद में वो हिन्दी में मुझसे आगे निकल गये औ साहित्य विशारद का इम्तेहान भी उन्होंने लिखा। वो उर्दू मेडियम से तालीम हासिल कर चुके थे। उन्हें फारसी भी अच्छी आती है। नुक्कला रामचंद्र रेड्डी और मर्रि चेन्नारेड्डी उनके साथी थे। पुरानी नसल के लोग वक़्त और वादे का बड़ा ख़्याल रखते थे। उनमें ईमान्दारी और जिम्मेदारी के साथ काम करने का ज़ज्बा था।

मैं डॉ. बनना चाहता था पिताजी सरकारी अफ़सर बनाना चाहते थे
मैं डॉक्टर बनना चाहता था। उस वक़्त किंग कोठी में डॉ. बहादुर खान थे। उनसे मुतासिर लेकर मैं मेडिसन की तालीम हासिल करना चाहता था। गांधी अस्पताल में जी. सुब्बा राव भी बड़े सर्जन थे। उस वक़्त डॉक्टरों को समाज में बड़ी इज्जत थी। मेडिकल में दाखिले के लिए इन्ट्रन्स नहीं था उन दिनों। लेकिन आधे नम्बर की कमी की वज्ह से मुझे मेडिकल में दाखिला नहीं मिल पाया। फिर बीएससी की डिग्री के बाद पिताजी चाहते थे कि मैं सरकारी अफसर बनूं, लेकिन दादाजी चाहते थे कि मै वकील बनूं। उन दिनों दादाजी ईंट की भट्टियाँ चला रहे थे। दर असल निज़ाम की हुकूमत में ज़िलों के दौरे के दौरान उन्हेंने बीड़ में इस तरह की भट्टियाँ देखी थीं। वापिस आये तो वालेयन्टियरी रिटायरमेंट हासिल किया और ईंट की भट्टियाँ खोल लीं। नागार्जुंना सागर की तामीर (निर्माण) में हमारी भट्टियें के ईटों का इस्तेमाल किया गया। खैर! वो चाहते थे कि मैं एल एल बी करूँ। क्योंकि बड़े भाई एल एल बी की तीलम अधूरी छोड़ चुके थे। मेरे फूफा भी एल एल बी नहीं कर पाये थे। अब सारी उम्मीदें मुझ पर थीं। मैंने पिताजी की बात रखने के लिए नौकरी के लिए इम्तेहान इस शर्त पर लिखा कि ड्युप्यूटी कलेक्टर चुना जाता हुं तभी नौकरी करूँगा वरना नहीं। इम्तेहान तो लिखा, लेकिन दिल में यही था कि फेल हो जाऊँ । मेरी दुआ क़बूल हुई । मैं इम्तेहान में तो कामयाब हुआ,लेकिन इन्टरव्यू के दौरान मेरा सलेक्शन में दौरान डिप्यूटी कलेक्टर के रूप में नहीं हुआ। और फिर दादा के सपने को पूरा करने के लिए एल एल बी में दाखिला ले लिया। 10 जनवरी 1966 को एडवकेट के तौर पर काम शुरू किया, कुछ दिन तक माधव रेड्डी के साथ काम किया और बाद में ख़ुद की प्रैक्टिश शुरू की। हालांकि दादा आज़ाद वकालत के ह़क(पक्ष) में थे, लेकिन बाद में सरकारी एडवकेट और जज के तौर पर मैंने खिदमात (सेवाएँ) अंजाम दीं।

बड़ा छोटे से जूनियर
मेरे तीन बेटे हैं। बड़ा चंद्रसेन इंजिनीयरिंग करके अमेरिका चला गया और फिर एम एस किया। दूसरा कंप्यूटर इंजीनियर हैं। तीसरे विजयसेन ने कानून की पढ़ाई की। चंद्रसेन कुछ साल बाद कई कंपनियों के साथ काम करके अमेरिका से लौटा और फिर बाद में उसने कानून की तालीम हासिल की और वकील बन गया। इस तरह बड़ा भाई वकील के पेशे में छोटे भाई से 7 साल जुनियर हो गया। लेकिन उसने मुख्तलिफ (विभिन्न) कार्पोरेट कंपनियों में काम करते हुए जो तजुर्बे हासिल किये, उसका फायदा वकील के पेशे में काफी अच्छा हुआ।

यादगार फैसले
जज के तौर पर अपनी जिन्दगी में यूँ तो कई फैसले दिये, लेकिन कुछ फैसले यादगार रहे। 1992 में इस जज के रूप में काम करते हुए एक साल बीता था। मेरी अदालत में सरकारी ज़मीन पर कब्ज़े का एक मामला सामने आया। हालांकि उस शख़्स ने सरकार से मंजूरी लेकर घर बनाया था, लेकिन बाद में उसे नाजायज करार देकर ख़ाली करने की नोटीस जारी की गयी। इसी बीच उसने अदालत में अपील दाखिल की। इधर अदालत में अपील थी दूसरी ओर दूसरी जानिब सरकारी अफ़सरों ने उसके घर का नल कटवा दिया। इस ताल्लुक से दरख्वास्त मिलने के बाद मैंने तत्काल वह नल कनेक्शन फिर से बहाल करने को कहा। क्योंकि पानी, बिजली और हवा आदमी का बुनियादी ह़क हैं। ज़िन्दगी को इन चीज़ों की ज़रूरत है। फांसी की सज़ा भी दी जाती है तो उसे उसकी आ़खरी ख्वाहिश पूछी जाती है, यह तो एक ज़मीन का मामला है।
1999 में एक एक सोमोटो मामला था। अ़खबार में एक ख़बर शाये (प्रकाशित) हुई थी कि एक ज़ेरे तामीर (निर्माणाधीन) इमारत के पास मज़दूर की बच्ची को आवारा कुत्तों ने मार डाला था। इसके लिए एमसीएच के ओहदेदारों को हुक्म दिया गया कि उस बच्ची गके माँ बाप को 1 लाख रुपये एक्सग्रेशा दिया जाए और यह रुपया उनके नाम बैंक में रखा जाएए। ओहदेदारों ने यह रकम कुछ कम करने की ख्वाहिश की, लेकिन
उसे कम नहीं किया गया।

एख़ल़ाकी अ़कदार (नैतिक मूल्य) कमज़ोर हो रहे हैं
अदलिया (न्यायालयीन प्रक्रिया) में हालांकि कई सारी ख़ामियाँ एवं कमज़ोरियाँ हैं, लेकिन लोगों का इसपर य़कीन बना हुआ है। जहाँ इन्साफ में देरी हो रही है, वहीं इसके लिए काफी पैसा भी खर्च हो रहा है। यही वज्ह है कि लोग इन्सानी ह़ुक़ूक कमिशन (मानवाधिकार आयोग) की ओर आ रहे हैं। लोकायुक्त कार्यालय आते हैं।

जहाँ तक `pil’ (जनहित याचिकाओं) का सवाल है, वहाँ 50 फीसद दरख्वास्तें सियासी तर्ज की हैं। उससे अदालतों का वक़्त भी ख़राब हो रहा है। हालांकि इसके लिए जुर्माना भी रखा गया है, लेकिन इससे लोगों के डरकर इस ओर न आने का अंदेशा भी है।

एख़ल़ाकी अ़कदार में आ रही गिरावट ने समाज के हर तब़के को कमज़ोर कर रही है। समाज में जब अ़कदार ही नहीं रहेंगे तो फिर अदालतों में अ़कदार की कल्पना कैसे की जा सकती है। एक ज़माना था कि किसी को करप्ट बोलते हुए हज़ार बार सोचना पड़ता था, लेकिन आज किसी को बदउनवान नहीं है, बोलना मुश्किल है। दूसरी ओर भाई भतीजावाद भी तेज़ी से बढ़ा है।

पापुलेशन के साथ बहुत से मसायल भी बढ़ी हैं। कभी मैं 7 मिनट में घर से हाईकोर्ट पहुंचता था। बाद में 12 मिनट और उसके बाद 17 मिनट और आब तो आधे घंटे से ज्यादा लगता है। एक ज़माना था कि शहर की कई सड़कों पर दोनों ओर इतने सारे पेड़ थे कि लंदन जैसा माहौल लगता था। अब पेड़ ढूंढने से भी नहीं मिलते।

लोकायुक्त में यूँ बहुत सी नयी बातें हो रही हैं। हालांकि इसका किसी और लोकायुक्त से म़ुकाबला नहीं करना चाहिए। लेकिन सीएम को छोड़कर सभी लोग इसके दायरे में आते हैं। हाल ही एक तजवीज मर्कजी हुकूमत को सौंपी गयी है कि सीएम को भी इसके दायरे में लाया जाए।