(एफ. एम. सलीम) ऐसी क्या चीज़ है, जो अच्छे ख़ासे आदमी को शायर बना देती है। …आम तौर पर लोग शायर के बारे में यही सोचते हैं, लेकिन दूसरा पहलू भी देखा जा सकता है कि कोई शायर हो कर वो ख़ास बन जाता है। दरअसल शायरी कुछ हट कर सोचने का अमल है।
यह हटकर होना कभी रिवायतों के साथ भी हो सकता है और कभी उससे आगे भी, बल्कि शायर तो नयी रिवायतें बनाता है। मशहूर अदाकारा दीप्ति नवल की श़ख्सियत में भी इसी तरह कुछ अलग होने के जज्बात ने शायरी को जन्म दिया है। वह भी अजनबी रास्तों पर दूर तक चलना चाहती हैं, इस सफर में कोई बातें करें यह ज़रूरी नहीं है, लेकिन साथ चलना शर्त है। सवालों और रिवाजों के दायरे से निकलकर चलते रहे, वहाँ तक जहाँ `तुम और मैं’ का भेद ख़त्म हो जाए।
अजनबी रास्तों पर
पैदल चलें
कुछ न कहें
अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए
सवालों के दायरों से निकलकर
रिवाज़ों की सरहदों के परे
हम यूँ ही साथ चलते रहें
कुछ न कहें
चलो दूर तक
तुम अपने माज़ी का
कोई ज़िक्र न छेड़ो
मैं भूली हुई
कोई नज़्म न दोहराऊँ
तुम कौन हो
मैं क्या हूँ
इन सब बातों को
बस, रहने दें
चलो दूर तक
अजनबी रास्तों पर …।
शायर जमालियत एवं रूमानियत का दिलदादा होता है, इसलिए क़ुदरती मऩाजिर उसे अपनी जानिब खींचते हैं। संगीत का जन्म भी यहीं कहीं होता है। परबतों से निकलती नदियों के मंज़र में भी यही जादू है। चूंकि दीप्ति ने मुसव्विरी और मूस़िकी के अलावा फोटोग्राफी में के फन में भी दखल रखती हैं, इसलिए उनकी नज़्मों में इन सब का मिला जुला रूप दिखायी देता है।
मैंने देखा है दूर कहीं पर्बतों के पेड़ों पर
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झुंड लिए कोई चरवाहा
कच्ची-कच्ची पगडंडियों से होकर
पहाड़ के नीचे उतरता हो
मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
और नीचे घाटी में
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे
हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
बाँसुरी के सुर को…
तब
यूँ ही किसी चोटी पर
देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
मैंने दिन को रात में बदलते हुए देखा है!
शायरी में यादों और तसव्वुरात की सरमयाकारी होती है। कभी-कभी तो यादें ही शायर का ओढ़ना बिछोना होती है। सर्द तन्हा रातों में देर तक और दूर तक इन्हीं यादों के फर्श पर वह चलते हुई दीप्ती नवल कहती हैं-
सर्द! तन्हाई की रात
और कोई
देर तक चलता रहा
यादों की बुक्कल ओढ़े!
शायरी का एक और म़कसद होता है अपने आपको पहचानना। कभी किसी के बारे में कहा जाता है कि वह किसी पर आसानी से खुलता ही नहीं है और शायरी उन्हीं बंद गिरहों को खोलने लगती है। इसके लिए दुनिया से बेनियाज़ होकर अपनी दुनिया मे खोना पड़ता है।
ठबहुत घुटी-घुटी रहती हो…
बस खुलती नहीं हो तुम!
खुलने के लिए जानते हो
बहुत से साल पीछे जाना होगा
और फिर वही से चलना होगा
जहाँ से कांधे पे बस्ता उठाकर
स्कूल जाना शुरू किया था
इस ज़ेहन को बदलकर
कोई नया ज़ेहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोज़
खुलकर
खिलखिलाकर
ठहाका लगाकर
किसी बात पे जब हँसूंगी
तब पहचानोगे क्या?
दीप्ति नवल की पैदाइश 3 फरवरी 1957 को अमृत्सर में हुई। हिन्दी और अंग्रेज़ी फिल्मों में उन्होंने अपनी अदाकार से अलग शिनाख़्त बनाई। शायरी, फोटोग्राफी और चित्रकला के अलावा अफसानानिगारी में भी उन्होंने अपने आपको सरगर्म रखा।