अनुपम मिश्र की शख्सियत: एक ताज़ियत-नामा

 

आज अनुपम मिश्र जी की 69वीं की सालगिरह है. अनुपम जी साधरण जीवन जीने वाले ख़ास व्यक्ति थे, जो आज से तीन रोज़ पहले हमारे बीच से चले गए. अनुपम जी “अनुपम” थे, इसके बावजूद अक्सर हम लोग उन्हें पानी, पर्यावरण या गांधीवाद की खिड़कियों से जानने की कोशिश करते रहे हैं. मैं अनुपम जी की  परंपरा का व्यक्ति नहीं हूँ, पर बनने की चाह ज़रूर है – जिसमें खुद को फ़ना कर बक़ा हासिल होती है. यह इसलिए भी कह रहा हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं अनुपम जी के बारे में जो लिखने की जुर्रत कर रहा हूँ, उसकी हैसियत मेरी नहीं है, वो इसलिए भी क्योंकि अनुपम जी की शैली में शिकायत किसी से नहीं होती, और मैं उस शैली में पारंगत नहीं हूँ और उसकी झलक मिलेगी, साथ ही मैंने अनुपम जी को पानी, पर्यावरण और गांधीवाद के दायरों से कभी नहीं जाना है, तो मुझे त्रुटियों के लिए माफ़ कीजियेगा.

 

मेरे नज़दीक उनकी क़द्र इसलिए अहम है क्योंकि आज के दौर में जब अमानवीयता अपने चरम पर है, और हमने अपना स्नेह-विहीन हो जाना कुबूल कर लिया, उसमें अनुपम जी उन कुछ लोगों में हमेशा गिने जायेंगे जिनके जीवन में दूसरों के लिए स्नेह का अकूत संग्रह था, और उन्होंने इस संग्रह के अलावा किसी भौतिक संग्रह को गले नहीं लगाया. आज साझी, रचनात्मक और संघर्षात्मक कोशिशों में हम एक दूसरे के साथ काम कर रहें हैं, परन्तु उसमें एक दूसरे के प्रति एक पराएपन का भाव ज़ाहिर होता ही है, हमने व्यक्ति विशेष की पूजा ज़रूर शुरू कर दी, पर एक दूसरे के साथ आदर का स्नेहात्मक रिश्ता नहीं कायम कर पाए. इस भीड़ में अनुपम जी गैरों के भी अपने थे.

 

अनुपम जी के अल्फाज़ में, ‘पिछले 200-300 बरसों से पूरी दुनिया में तेज़ हवाएं चल रहीं हैं, पहले भी चलती रही होंगी पर तब पूरी दुनिया एक दूसरे से बहुत दूर बहुत दूर थी, और कटी हुई थी. उस दुनिया में हवाएं भी टुकड़ों में बनती रही होंगी. जीवन तब भी कोई आसान न रहा होगा, एक बड़ी आबादी के लिए, फिर भी उतना कठिन और निरुद्देश्य भी नहीं रहा होगा, जितना कि वह आज बना दिखता है’.

 

अनुपम जी भारत की परंपरागत ज्ञान परंपराओं के उन शीर्ष ऋषियों में भी गिने जायेंगे, जिन्होंने परंपरागत ज्ञान को जाना और उसे दूसरों तक पहुँचाया. उनका तरीका औरों से जुदा रहा इस मामले में कि उन्होंने परंपरागत ज्ञान परंपराओं का कोई महिमा मंडन नहीं किया, उसे किसी परंपरा का प्रतिद्वंदी नहीं बनाया, ना ही अहम या बड़ा बताया. उनका यह काम सहज और अहंकार मुक्त होने के साथ-साथ किसी वर्चस्व की प्रतियोगिता में भी भागीदार नहीं रहा. उन्होंने अज्ञान को भी ज्ञान के बतौर जाना.

अनुपम जी ने सरलता, सहजता और सादगी के साथ जीवन गुज़ारा, बिना किसी से उम्मीद लगाये हुए कि और लोग भी उन जैसे बन जायें. दूसरे अल्फाज़ में उन्होंने अपने आप को किसी पर भी नहीं थोपा. अपनी सादगी का कोई नगाड़ा भी नहीं बजाया जैसे आज फैशन में है. और अपने आपको त्याग का आह्वाहन करने वालों में शामिल नहीं किया. दूसरे को जताये बिना सादगी से कैसे जिया जाता है यह अनुपम जी के जीवन में झलकता है. उनके लिए कष्ट पराया नहीं था, और कहा कि मृत्यु से जीवन बनता है. जब उन्हें कैंसर हुआ तब उन्होंने मुझे कहा कि उन्हें कोई शिकायत नहीं है, कि उन्हें यह बीमारी क्यों हुई या यह दर्द क्यों हुआ, औरों को भी होता ही है, ऐसे ही उन्हें भी हो गया.

 

उन्होंने महासागर में मिलने की शिक्षा को अपने जीवन में उतारा – अनुपम जी मेरा विचार, मेरा धर्म, मेरी संस्था, मेरा संगठन, मेरा समाज, मेरा देश, मेरा परिवार से ऊपर थे. उन्होंने अपने विचारों पर भी सवाल उठाया भले ही कई बार जवाब नहीं मिले, और अपनी जीवन यात्रा में एक विचार यात्रा भी चलाई, जो अक्सर हममें से बहुत लोग नहीं करते हैं.

 

उन्होंने आज के सबसे विध्वंसकारी और आकर्षक विचार या कहें धर्म जिसे हम ‘विकास’ के नाम से जानते हैं, उसे भी दूसरी नज़र से देखा. हमने तो विकास के आगे पीछे कुछ लगा कर उसे अपने अनुरूप अच्छा सिद्ध कर लिया है, पर अनुपम जी इस विकास के झंडे के साये में नहीं आये. उन्होंने ‘चेंज’, बदलाव, परिवर्तन जैसे शब्दों और नारों में विशेष आकर्षण के आग्रह को कुबूल नहीं किया. बदलाव के मायने उन्होंने समाज से जाने. विकास की दौड़ में हम सब दौड़ रहें हैं, लेकिन अनुपम जी नहीं दौड़े. हम थोड़ा अपने भीतर झांके तो हमें पता चलेगा कि हममें से ज़्यादातर का जीवन कोल्हू के बैल जैसा ही बना दिया गया है – किन्तु अनुपम जी कोल्हू के बैल नहीं बने. उन्होंने अकेला ऊपर उठ जाना कुबूल नहीं किया, और बहुतों के साथ उठने के विचार को ही अपनी ज़िन्दगी का सिद्धांत बनाया.

 

अनुपम जी ने प्रतिरोध की संस्कृति को भी नए रंग दिए, वह हमारी तरह न होते हुए भी हमारे ही रहे. उन्होंने नए जिंदाबाद-मुर्दाबाद के विचार गुंथे अपने सहज ठहराव के साथ. गाँधी शांति प्रतिष्ठान के जिस कमरे में वह बैठा करते थे, जिसे हम पर्यावरण कक्ष के नाम से जानते हैं – ये वही कमरा है जहाँ जय प्रकाश नारायण ठहरा करते थे, और आपातकाल के दौरान उनकी गिरफ्तारी भी यहीं से हुई.

 

अनुपम जी ने राज्य की जगह समाज को चुना. वह भारतीय बहुलतावादी–सेक्युलर विचार परंपरा के व्यक्ति थे. आज हमारे साथ बहुत से लोग हमारे साथ इन्साफ की मुहिमों में, ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते हुए ज़ाहिर होते हैं लेकिन इस सबके बावजूद उनमें से बहुत के विचार आरएसएस के नज़दीक पाए जाते हैं. अनुपम जी को समाज का बिखरना अखरता था. आज जब भारत में मुसलमानों के लिए संगठित हिंसा का नया दौर शुरू हुआ है, मैं पूरी ज़िम्मेदारी से कह सकता हूँ, कि अनुपम जी उन लोगों में से थे जिनका दिल इसके लिए परेशान था.

 

आज जब मुस्लिम विरोधी होना फैशन है, वह मुस्लिम विरोधी नहीं बने. उन्होंने हम लोगों की तरह सड़क के संघर्ष का रास्ता भले ही नहीं अपनाया हो, और हमारी शब्दावली, प्रतीक और बिम्ब का प्रयोग नहीं करते हों. पर उनके और हमारे सिद्धांत और विचार एक ही रहे – उसमें कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए. बहुलता का आग्रह होता है कि किसी का वर्चस्व ना हो, इसलिए हमें अपनी जानने की खिड़कियों को साफ़ करते रहना चाहिए, अगर हम उन्हें बदल नहीं सके तो. वह तारेक फतेह के बयानों से खुश होने वाले भारतीयों में नहीं थे.

 

अनुपम जी लम्बे किस्सों को छोटे में समेटकर सुरुचिपूर्ण रूप से प्रस्तुत करने के मिस्त्री थे. अक्सर भेंट होने पर या फ़ोन पर ऐसे दिलचस्प किस्से जानने के लिए मिलते थे. वह आज के ख़ास ज़ुल्मत के दौर में मुझे हिम्मत दिलाने वाले लोगों में से एक थे. मैंने उन्हें उनके पानी के काम से नहीं जाना, बल्कि इन्हीं तरह की उम्मीद जगाने वाली, हौसला बढ़ाने वाली बातों से जाना.

 

अनुपम जी एक मर्तबा असम के बीहड़ों में थे, किसी ने रास्ते में मुसाफिर होने के नाते खाने के लिए पूछा, जिसे अनुपम जी ने और उनके साथियों ने कुबूल किया. जब खाना आया तो उसमें छोटी-छोटी मछलियाँ भी थीं, और ये सब लोग शाकाहारी थे. और लोगों ने खाना नहीं खाया. पर अनुपम जी अनुपम थे, उन्होंने प्रेम से बनाये हुए खाने को कुबुल किया और मछलियों को प्लेट के किनारे में रख आदरपूर्वक खा लिया, इसके बावजूद कि बिन मछली खाने में भी मछली की गंध आ रही थी.

 

पानी के काम के दौरान उन्होंने राजस्थान में एक जगह पाया कि वहां एक कब्र और समाधि साथ-साथ बनी हुई है, पूछा कि ऐसा कैसे – तो गाँव वालों ने उन्हें बताया कि काफी समय पहले इस बस्ती में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ, उसमें ये दोनों मारे गए, जब शांति स्थापित करने के प्रयत्न हुए तो यह तय किया गया कि इन दोनों व्यक्तियों की कब्र और समाधि साथ-साथ बने ताकि आगे कोई दंगा न हो, और उसके बाद कोई दंगा हुआ भी नहीं.

 

अनुपम जी ने 6 दिसंबर 2012 को एक बातचीत में मुझे बताया कि जब बाबरी मस्जिद शहीद हुई तब उनके परिवार में दो अलग तरह के इज़हार हुए, उनके रिश्ते के एक भाई ने इस मौके पर मिठाई बांटी, और रिश्ते के एक दूसरे भाई ने दुःख में मातम मानते हुए पूरे दिन उपवास किया. इस तरह की न जाने कितनी जानकारी मुझे उनसे मिलती रही.

 

जब भी अनुपम जी कोई भाषण देने जाते उसके लिए बहुत मेहनत किया करते थे. जो भी महत्वपूर्ण चीज़ मिलती उसे एक जगह पर्चियों के रूप में जमा करते रहते और उसमें से आखिर में अपना भाषण तैयार करते. वह सोते समय भी अपने नजदीक एक कलम और छोटा सा कागज़ रखते थे, जिसका इस्तेमाल वह रात में कुछ ख़ास मन्थन की बुनाई को दर्ज करने के लिए करते थे. उन्हें एक ख़ास आदत थी, महीने में तमाम दफ्तर के गैर-ज़रूरी कागज़ को ठिकाने लगाने की. उनके पास ख़ास और आम तरह के जो भी ख़त आते थे उन्हें वह नियमित रूप से अपने पिताजी की तरह ठिकाने लगाते रहते थे. किसी ख़ास ख़त का संग्रह उन्होंने कभी नहीं किया अपने पिताजी की तरह.

 

अनुपम जी अपने घर गाँधी निधि से दफ्तर गाँधी शांति प्रतिष्ठान के आने-जाने का सफ़र बस से ही तय करते थे, और कभी कभार इस सफ़र में भागीदार बनने का मौक़ा मुझे भी मिला, कभी किराया नहीं देने दिया उन्होंने. वह अपने हाथ के बनाए हुए कागज़ के बटुए में पैसे रखते थे अक्सर.

 

खैर-खबर और हौसला दिलाने के अलावा, अक्सर उनका फ़ोन आता था, उर्दू के कुछ अल्फाज़ के मायने जानने के लिए भी, और साथ ही उन्हें कैसे लिखा जाए.

 

2011 में दिल्ली समाज कार्य विभाग में उनसे पहली मुलाक़ात हुई, और इन मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा. आखरी मुलाक़ात उनसे मई 2016 में हुई. अस्पताल में जब भरती हुए, तो सख्ती से मना किया कि मिलने नहीं आना. फ़ोन पर बात होती रही, दूसरों से उनकी खैर-खबर हासिल करता रहा. इस बात का अफ़सोस हमेशा रहेगा कि उनकी बात न मानकर ज़िन्दगी के आखरी हिस्से में, मैं उनसे मुलाक़ात के लिए क्यों नहीं गया.

 

उवेस सुल्तान खान

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)