अपनी आमदनी का एक हिस्सा अल्लाह के लिए

नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया कि एक शख्स एक जंगल में था उसने एक बादल मे से यह आवाज सुनी कि फलां शख्स के बाग को पानी दे। उस आवाज के बाद फौरन वह बादल एक तरफ चला और एक पथरीली जमीन में खूब पानी बरसा और वह सारी पानी एक नाले में जमा होकर चलने लगा।

यह शख्स जिस ने आवाज सुनी थी उस पानी के पीछे चल दिया। वह पानी एक जगह पहुंचा जहां एक शख्स खड़ा हुआ बेलचे से अपने बाग में पानी फेर रहा था। उसने बाग वाले से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है। उन्होंने वही नाम बताया जो उसने बादल में से सुना था।

फिर बाग वाले ने उससे पूछा कि तुमने मेरा नाम क्यों दरयाफ्त किया। उसने कहा कि मैंने उस बादल में जिस का पानी यह आ रहा है, यह आवाज सुनी थी कि फलां शख्स के बाग को पानी दे और तुम्हारा नाम बादल में सुना था। तुम इस बाग में क्या काम करते हो जिसकी वजह से बादल को यह हुक्म हुआ कि उसके बाग को पानी दो।

बाग वाले ने कहा कि जब तुम ने यह सब कहा तो मुझे भी कहना पड़ा। मैं इस बाग के अंदर जो कुछ पैदा होता है उसके तीन हिस्से करता हूं। एक हिस्सा यानी तिहाई तो फौरन अल्लाह के रास्ते में सदका कर देता हूं और एक तिहाई मैं और मेरे बाल बच्चे खाते हैं और एक तिहाई इसी बाग की जरूरियात में लगा देता हूं। (मिश्कात)

किस कदर बरकत है अल्लाह के नाम पर सिर्फ एक तिहाई आमदनी के खर्च करने की कि पर्दा गैब से उनके बाग की परवरिश के सामान होते हैं और खुली मिसाल है। सदका करने से माल कम नहीं होता कि बाग की एक तिहाई पैदावार सदका की थी और तमाम बाग के दोबारा फल लाने के इंतजामात हो रहे हैं।

इस हदीस शरीफ से एक बेहतरीन सबक और भी हासिल होता है। वह यह कि आदमी को अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा अल्लाह के रास्ते में खर्च करने के लिए मुतअय्यन कर लेना ज्यादा मुफीद है और तजुर्बा भी यही है कि अगर आदमी यह तय कर ले कि इतनी मिकदार अल्लाह के रास्ते में खर्च करनी है तो फिर खैर के मसारिफ और खर्च करने के मौके बहुत मिलते रहते हैं और अगर यह ख्याल करे कि जब कोई नेक काम होगा उस वक्त देखा जाएगा तो अव्वल तो नेक काम ऐसी हालत में बहुत कम समझ में आते हैं।

और हर मौके पर नफ्स और शैतान यही ख्याल दिल में डालता हैं कि यह कोई जरूरी खर्च तो नहीं है और अगर कोई बहुत ही अहम काम ऐसा भी हो जिसमें खर्च करना खुली खैर है तो अक्सर मौजूद नहीं होता और मौजूदगी में भी अपनी जरूरियात सामने आकर कम से कम खर्च करने को दिल चाहता है और अगर महीने के शुरू में तंख्वाह मिलने पर एक हिस्सा अलग करके रख दिया जाए या रोजाना तिजारत की आमदनी में से संदूक का एक हिस्सा अलग करके उसमें मुतअय्यना मिकदार डाल दी जाया करे कि यह सिर्फ अल्लाह के रास्ते में खर्च करना है तो फिर खर्च के वक्त दिलतंगी नहीं होगी कि इसको तो बहरहाल वह मिकदार खर्च करना ही है।

बड़ा कारामद नुस्खा है जिसका दिल चाहे कुछ दिन तजुर्बा करके देख ले।

अबू वायल (रजि0) कहते हैं कि मुझ को हजरत अब्दुल्लाह बिन मसूद (रजि0) ने करीजा की तरफ भेजा और यह इरशाद फरमाया कि मैं वहां जाकर वहीं अमल अख्तियार करूं जो बनी इस्राईल का एक फर्द करता था कि एक तिहाई सदका कर दूं और एक तिहाई उसमें छोड़ दूं और एक तिहाई उनके पास ले जाऊँ। इससे मालूम होता है कि सहाबा भी इस नुस्खे पर अमल फरमाते थे। (मौलाना मंजूर नोमानी)

————–बशुक्रिया: जदीद मरकज़