अपनों की बेरुख़ी का शिकार ज़ईफ़ बेघर बेसहारा अफ़राद का आराम घर

दुनिया का ये दस्तूर है कि बच्चों की परवरिश करके बड़ा करना और काबिल् बनाना माँ बाप की ज़िम्मेदारी है और फिर बच्चों का ये फ़रीज़ा है कि माँ बाप के लिए ज़ईफ़ी में सहारा बनना लेकिन कुछ घरों में ये माहौल ख़तम् हो गया है।

ऐसे माँ बाप के लिए आख़िरी सहारा ओलड एज्ज होम रह जाता है। हैदराबाद शहर में ऐसे मजबूर ज़ईफ़-उल-उमर हज़रात के लिए ऐसा एक ओलड एज्ज होम आराम घर के नाम से क़ायम है।

आज हम ने इस का जायज़ा लिया। आराम घर का 2 अक्टूबर 1957-ए-में कारवाँ में क़ियाम अमल में आया था। आज़ाद हिंदूस्तान के पहले वज़ीर-ए-आज़म पण्डित जवाहर लाल नहरू ने इस का इफ़्तिताह किया था और अब ये श्योराम पली चौराहे पर 16 एकड़ वसीअ अराज़ी पर वाक़्य है।

इस आराम घर की बानी पार्सी मज़हब से ताल्लुक़ रखने वाली आँजहानी रोडा मिस्त्री थीं जो एक बड़ी समाजी ख़िदमत गुज़ार और पार्लीमैंट की रुकन भी थीं। इन की ही कोशिश से ये आराम घर क़ायम हुआ और 1962-ए-में श्योराम पली मुंतक़िल हुआ।

आज ये जिस मुक़ाम पर है वो इलाक़ा आराम घर के नाम से ही जाना जाता ही। आराम घर में इस वक़्त 60 औरतें और 55 मर्द हैं, जिस में 14 मुस्लमान मर्द-ओ-ख़वातीन हैं।

इन की उमरें 50 साल से ज़ाइद हैं। इस में कुछ दिमाग़ी मरीज़ हैं और बक़ीया वो भी जवान औलाद से मायूस होकर आराम घर को अपना मस्कन बनाए हुए हैं।

इन में अक्सरीयत इन ज़ईफ़ों की है जो सास बहू या सुसर और बहू के झगड़ों या नाफ़रमान बेटों की वजह से बेज़ार होकर यहां आ गए हैं और बरसों से यहां मुक़ीम रह कर ख़ुद को सुकून महसूस कररहे हैं। आराम घर के मकीन ने बताया मैंने मेरे बेटे और बहू की नाफ़रमानी की वजह से यहां पनाह ली है।

मैं यहां बहुत ख़ुश हूँ और मरते दम तक यहीं रहूँगा। उन्हों ने बताया कि यहां हमें तीन वक़्त का खाना मिलता है और हम बड़े सुकून के साथ यहां ज़िंदगी गुज़ारते हैं। हर एक को सोने के लिए बिस्तर मुहय्या है।

पलंग पर मच्छर दांयां भी हैं और मच्छर कश अदवियात भी फ़राहम की जाती हैं। ग़िज़ा सबज़ तर्कारीयों पर मुश्तमिल होती ही। बेहतरीन चमनबंदी ही। इस आराम घर में डॉक्टर्स, अनजीनरस और आला ओहदों पर फ़ाइज़ रह चुके अफ़राद भी मौजूद हैं जो अपने नाफ़रमान बच्चों से तंग आकर यहां मुंतक़िल हो चुके हैं।

मनजॆमॆनट् का कहना हीका यहां के स्टाफ़ के हुस्न-ए-सुलूक से लोग इतने ख़ुश हैं कि फिर लौट कर अपनी औलाद के पास दुबारा जाना नहीं चाहती।

वो आराम घर के हो जाते हैं। सपरनटनडनट लाल बाशाह ने बताया कि वो यहां 12 साल से ख़िदमत कररहे हैं। इन का ताल्लुक़ कड़पा से ही। इन की बीवी भी उन के साथ काम और मरीज़ों की ख़िदमत करती हैं और दीगर स्टाफ़ भी आराम घर के मकीनों की ख़ुशदिली से ख़िदमत करते हैं जो काबिल-ए-तारीफ़ है।

लाल बाशाह ने एक सवाल का जवाब देते हुए बताया कि मुस्लमानों की यहां कमी की वजह क़ुरआन-ओ-सुन्नत की तालीमात हैं, जिस में बार बार इस बात की तलक़ीन की गई है कि माँ बाप की ख़िदमत करो और उन के एहसानात और उन के मर्तबा को ज़ाहिर किया गया ही। इस वजह से आराम घर में ग़ैरमुस्लिमों की तादाद ज़्यादा है। रोडा मिस्त्री चंद बरस क़बल वफ़ात पा गईं, लेकिन आज भी आराम घर के मकीन उन्हें अम्मां कहते हैं।

रोडा मिस्त्री मुस्लमानों के बहुत क़रीब थीं। शायद यही वजह है कि आज इस इदारा को चलाने वालों में तमाम मुस्लमान हैं। इन का बेटा पैरिस में और एक बेटी अमरीका में ही। वो साल में एक मर्तबा आकर जाते हैं। मर्कज़ी हुकूमत ने 1957-ए-में एक लाख की ग्रांट मंज़ूरी की थी। लाल बाशाह ने बताया दरअसल आराम घर अवामी अतयात से चलता है और ये इदारा एक ख़ानगी मैनिजमंट के ज़रीया एक सोसाइटी का नाम इंडियन कौंसल आफ़ सोश्यल वीलफ़ीर आंधरा प्रदेश के तहत काम करता है।

चार साल से ये रक़म भी बंद कर दी गई है। कमेटी के सदर मुहम्मद अबदुलशकूर हैं और सैक्रेटरी हाशिम हुसैन सपरनटनडनट एसजे लाल बाशाह और डाक्टर शेख़ महबूब एम डी और सावरा बानो डिसपेंसरी की ज़िम्मेदार हैं।

आराम घर के मकीनों को कपड़ा, खाना, ईलाज देना सब मुफ़्त ही। लाल बाशाह ने बताया कि अदालत के अहकामात के मुताबिक़ दिमाग़ी माज़ूर यन को जिन्हें पागलख़ाना में मुस्तक़िल तौर पर रखने की मंज़ूरी दी जाती है तो ऐसे मरीज़ों को आराम घर मुंतक़िल करदेते हैं और हम इन मरीज़ों के लिए 16 एकड़ अराज़ी पर अलहदा इमारत तामीर करना चाहते हैं। इन मरीज़ों की वजह से आराम घर के मकीनों को मुश्किल हो रही है।

पुलिस स्टेशन से भी 50 साल से ज़ाइद उम्र के उन लोगों को भी यहां भेजा जाता है जो सड़कों पर ज़िंदगी गुज़ारते हैं जो लावारिस होते हैं। लाल बाशाह ने बताया इस आराम घर को 85 फ़ीसद अतयात खाने और मेवे मारवाड़ी बिरादरी से मिलते हैं। आराम घर में ज़रूरतमंदों के दाख़िले केलिए कुछ उसूल हैं। जब इंतिज़ामी कमेटी मुतमइन होती है तब ही इस में दाख़िला चंद मराहिल से गुज़रने के बाद दिया जाता ही। फ़िलवक़्त इतने फ़ंडज़ नहीं हैं कि कसीर तादाद में दाख़िला दिया जायॆ।