अफगानिस्तान: करीब दस पत्रकारों पर हमला कर की गई हत्या

सोमवार को अफगानिस्तान में हुए दो हमले मीडिया की स्वतंत्रता पर सोचे समझे हमले थे। जब पत्रकारों को चुप कराया जाता है, तब लोकतंत्र पर खतरा पैदा हो जाता है।

कम से कम दस रिपोर्टरों की जान गई है. काम के दौरान उनकी हत्या कर दी गई। नागरिकों को मारना एक युद्ध अपराध है। लेकिन सीरिया, यमन, इराक, नाइजीरिया, सोमालिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो जैसी जगहों में इस बात की परवाह कौन करता है? अफगानिस्तान के युद्धक्षेत्र में भी नागरिकों को निशाना बना कर हमले करना रोजमर्रा का हिस्सा बन गया है।

नागरिकों को प्रताड़ित किया जाता है और उनकी जान ली जाती है ताकि बाकी आबादी को डराया जा सके, उनमें दहशत भरी जा सके, उन्हें चुप कराया जा सके। पत्रकार आम नागरिक होते हैं और जब उन्हें चुप कराया जाता है, तब लोकतंत्र पर खतरा पैदा हो जाता है।

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार काबुल का दूसरा हमलावर कैमरा ले कर घूम रहा था, वह पत्रकार होने का ढोंग कर रहा था और पहले हमले की रिपोर्टिंग कर रहे असली पत्रकारों के साथ घुल मिल रहा था – उन्हीं पत्रकारों के साथ जो हर दिन अपनी जान जोखिम में डाल कर अफगानिस्तान जंग के पीड़ितों को आवाज और पहचान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।

अफगानिस्तान में मीडिया की मौजूदगी, अंतरराष्ट्रीय सैन्य हस्तक्षेप की एक बड़ी सफलता है। आज अफगानिस्तान में कम से कम 170 रेडियो स्टेशन हैं और दर्जन भर अखबार हैं। 30 से ज्यादा टीवी प्रोग्राम अकेले राजधानी काबुल से प्रसारित होते हैं। युवा मीडियाकर्मी डगमगाते लोकतंत्र में लोगों की उम्मीदों को जिंदा रख रहे हैं।

सोमवार सुबह जब अफगानिस्तान की खुफिया एजेंसी के मुख्यालय के करीब खूब ट्रैफिक के बीच सड़क पर एक मोटरसाइकल सवार ने खुद को उड़ा लिया, तो कई पत्रकार घटनास्थल पर पहुंचे।

वे घटना की रिपोर्टिंग के लिए गए थे। वे उस खामोशी को चीरने गए थे, जो ऐसे हमले के बाद पीड़ितों को महज एक संख्या में बदल कर रख देती है। लेकिन ऐसा हो ना सका। बल्कि, दूसरे हमलावर ने विस्फोट कर दिया।

खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वाले आतंकी संगठन की अफगान इकाई ने इसकी जिम्मेदारी ली है। लेकिन यह तालिबान का काम भी हो सकता था। या फिर किसी भी अन्य हथियारबंद गिरोह का, जिन्हें सार्वजनिक बहस से खतरा महसूस होता है।