अब वही हर्फ़-ए-जुनूं सबकी ज़बां ठहरी है
जो भी चल निकली है वो बात कहाँ ठहरी है
आते आते यूं ही दम भर को रुकी होगी बयार
जाते जाते यूं ही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है
वस्ल की शब् थी तो किस दर्जा सुबुक़ गुज़री थी,
हिज्र की शब् है तो क्या सख्त़ गिरां गुजरी है
है वही आरिज़-ए-लैला वही शीरीं का दहन
निगाह-ए-शौक़ घडी भर को जहां ठहरी है
हम ने जो तर्ज़-ए-फ़ु़ग़ा़ं की है क़फ़स में इजाद
“फ़ैज़” गुलशन में वही तर्ज़-ए-बयाँ ठहरी है
(फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’)