अमजद हैदराबादी

अमजद हैदराबादी( 7 रजब1305-12 शवाल 1380 )(1878–1961)

सय्यद अहमद हुसैन हूँ अमजद हूँ
हस्सान उल-हिंद सानी सरमद हूँ
क्या पूछते हो हसब ओ नसब को मिरे
मैं बंदा लम यलिद वलम यूलद हूँ

इस रुबाई में अपना तआरूफ़ पेश करने वाले अमजद हैदराबादी को शहंशाहे रुबाइयात कहा जाता है। 28 सितंबर 1908 मूसा नदी में तुग़यानी आगई, हैदराबाद की आबादियों को बहा ले गई। हज़ारों बरबाद होगए। अमजद की वालिदा, बीवी, बच्ची और ख़ुद अमजद पर मुश्तमिल ख़ानदान में सिवाए अमजद के कोई ना बचा।
अमजद के असातिज़ा में मौलवी अबदूल वहाब बिहारी, मौलवी सईदुद्दीन सहारनपुरी, अल्लामा सनाद उल-मलिक शुतारी, हकीम सय्यद बदरुद्दीन के नाम मिलते हैं। आप ने जामिआ निज़ामीया में छः साल तालीम हासिल की।
नस्र में उन की यादगार पाँच किताबें और दो रिसाले हैं। जमाल अमजद, हिकायात अमजद, हज अमजद, पयाम अमजद, मियां बीवी की कहानी, अय्यूब की कहानी वग़ैरा।
अमजद बहैसिसीते शायर ऊंचा मुक़ाम रखते हैं। बिलख़सूस अमजद की रुबाईआत क़ुरआन-ओ-हदीस की तर्जुमानी करती हैं।
अमजद हैदराबादी की चंद रबाईआत पेश हैं।
हर चीज़ मुसब्बबे सबब से मांगो
मिन्नत से लजाजत से अदब से मांगो
क्यों ग़ैर के आगे हाथ फैलाते हो
गर बंदे हो रब के तो रब से मांगो

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इस सीने में कायनात रख ली मैंने
किया ज़िक्र सिफ़ाते ज़ात रख ली मैंने
ज़ालिम सही जाहिल सही, नादान सही
सब कुछ सही तेरी बात रख ली मैंने

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ना अब दौरे शबाब बाक़ी है
ना अब दौरे शराब बाक़ी है
हो चुकीं ख़त्म लज़्ज़तें अमजद
अब लज़्ज़तों का अज़ाब बाक़ी है

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जब अपनी ख़ताओं पर मैं शर्माता हूँ
एक ख़ास सुरूर क़ल्ब में पाता हूँ
तौबा करता हूँ जब गुनाह से अमजद
पहले से ज़्यादा पाक हो जाता हूँ

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हम बाक़ी सब है फ़ानी अल्लाह अल्लाह
है कौन हमारा सानी अल्लाह अल्लाह
रहमत से हमारी ना उम्मीदी तौबा
अल्लाह से ये बदगुमानी अल्लाह अल्लाह

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बंदा पहुंचा है अपने मौला के हुज़ूर
अग़फ़रला-ओ-अरहमा या रब ग़फ़ूर
तारीख़ की जो की फ़िक्र हातिफ़ ने
कहदे हिज्री में आह अमजद मग़फ़ूर

(अमजद की मज़ार पर ये रुबाई कुंदा है।)
मुफ़लिस हूँ न माल है न सरमाया है
क्या पूछता है मुझ से तू क्या लाया है
अमजद तेरी रहमत के भरोसे यारब
बंद आँख किए यूं ही चला आया है
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ग़म से तिरे अपना दिल न क्यों शाद करूं
जब तू सुनता है क्यों ना फ़र्याद करूं
मैं याद करूं तू तो मुझे याद करे
तू याद करे तो मैं न क्यों याद करूं

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ख़ाली है मकां, मकीं पैदा करदे
दिल में मेरे दिल नशीं पैदा करदे
ऐ मुर्दा दिलों को ज़िंदा करने वाले
शक्की दिल में यकीं पैदा करदे

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अब रूह क़दम क़दम पे इतराती है
हर सांस में ताज़ा ज़िंदगी पाती है
इक रोज़ क़दम हुज़ूर के चूमे थे
अब तक मेरे मुँह से बूए इतर आती है

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ले ले के ख़ुदा का नाम चलाते हैं
फिर भी असरे दुआ नहीं पाते हैं
खाते हैं हराम लुक़मा पढ़ते हैं नमाज़
करते नहीं परहेज़ दवा खाते हैं

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बहरे मुतलातिम में बहा जाता हूँ
हर दम तरफ़ लहद खींचा जाता हूँ
बाज़ारे फ़ना में क्या ठहराता है मुझे
मैं सिर्फ़ कफ़न ले के चला जाता हूँ