अमरीका और अमरीकी मुस्लमान मेरी नज़र से

आमिर अली ख़ान– आज में अपनी बात की शुरूआत अमरीकी अख़बार यु एस ए टोडे के उस ए दारती पैराग्राफ़ से करना चाहूंगा जिस में अमरीकी मुस्लमानों के हवाले से PEW रिसर्च सैंटर के सर्वे पर तबसरा किया गया है। अख़बार लिखता है किदूसरे लोगों की तरह अमरीकी मुस्लमान भी यहां की सरगर्मीयों में उन्हें(ग़ैरमुस्लिमों) की तरह शिरकत करते हैं, और उन में से ग़ालिब अक्सरीयत का कहना है कि वो इस मुल्क में अपनी समाजी ज़िंदगी से ख़ुश हैं। दूसरी बिरादरीयों के बारे में इन की ( मुस्लमानों की ) राय मुसबत है और उन का ईमान है कि सख़्त मेहनत ही कामयाबी का ज़ीना है, और ये कि उन्हें भी इस्लामी इंतिहापसंदी पर उतनी ही तशवीश है जितनी के ग़ैरमुस्लिमों को है।

इस चशम कुशा और हक़ीक़त पसंद तबसरे को पढ़ने के बाद ,जब मैंने अमरीकी मुस्लमानों के तईं अमरीकी दस्तूर ओर अमरीकीयों की सोच व फ़िकरका तक़ाबुली जायज़ा लिया तो में इस नतीजा पर पहुंचा कि दोनों के दरमयान एक गहिरी ख़लीज मौजूद है और बिलाशुबा इस ख़लीज की तख़लीक़ में उस अमरीकी मीडीया का बहुत बड़ा रोल है जिस पर बड़े बड़े सरमायादार और अमरीकी सियासत पर असरअंदाज़ होने वाले सैहोनियों का क़बज़ा है ( जिस का ज़िक्र में बाद में करूंगा)। सरे दसत मेरा मौज़ू अमरीकी मुस्लमान और उन की मज़हबी , समाजी , तालीमी, मआशी और सयासी मसाइल पर मबनी इन का तर्ज़ हयात है, जिस पर मैं इख़तिसार के साथ रोशनी डालने की कोशिश करूंगा।

सब से पहले तो में इस हक़ीक़त का बरमला एतराफ़ करूंगा कि अमरीकी दस्तूर के मुताबिक़ दीगर अक़्वाम की तरह मुस्लमानों को भी यहां मज़हबी आज़ादी हासिल है, वो अपनी मसाजिद तामीरकरसकते हैं, दरसगाहें बना सकते हैं, अपने मज़हबी तशख़्ख़ुस की हिफ़ाज़त केलिए मतलूबा इक़दामात रूबा अमल लासकते हैं औरों की तरह अपने ख़्यालात का बरमला इज़हार करसकते हैं और करते हैं…..मगर इन तमाम तर हक़ीक़तों के बावजूद ये भी एक हक़ीत है कि 9/11 हादिसे के बाद इस्लामी मराकिज़ , मसाजिद और मुस्लिम इदारों की अमरीकी इंतिज़ामीया की जानिब से निगरानी और जासूसी भी की जाती रही है। दरअसल अमरीकी इंतिज़ामीया में मौजूद क़दामत पसंद नज़रियात के हामिल ओहदेदार मुस्लमानों के इन मराकज़ को दहश्तगर्दी के मराकज़ साबित करने की नाकाम कोशिश करते रहे हैं ।

मगर इन का ये क़ियास और नज़रिया बिलकुल बे बुनियाद है और अल्हम्दुलिल्ला,अमरीका के हज़ारों मसाजिद और मराकज़ में से किसी एक के हवाले से भी ये वसूक़ के साथ नहीं कहा जा सकता कि वो किसी दहश्तगर्दी में मुलव्वस हैं। यहां में इस बात का तज़करा करना मुनासिब समझता हूँ कि 17सितंबर को हमें अपने दोस्तों के साथ वाशिंगटन से रवाना होकर मशहूर अमरीकी शहर टमपा, फ़्लोरीडा पहुंचाया गया, जहां हमें 22सितंबर तक रहना था , यहां पर अमरीकी वज़ारत-ए-ख़ारजा के ओहदेदारों के साथ हमारी मीटिंग मुक़र्रर थी इस में मैंने अपने ज़हन में उभरने वाले किये सवालात खुल कर किये, चूँकि मैं समझता हूँ कि नाराज़गी ज़ाहिर कर देना दिल में कीना रखने से बेहतर है, इस लिए मैंने कहा जिस तरह हिंदूस्तान में नरेंद्र मोदी को मुस्लमानों की नसल कुशी का मुर्तक़िब और ज़िम्मा दार समझा जाता है(जिस का ख़ुद अमरीकी हुकूमत को भी एतराफ़ है और जिस की बुनियाद पर इस ने मोदी को अमरीकी वीज़ा जारी करने से इनकार कर दिया था)

ठीक इसी तरह आलमी सतह पर साबिक़ सदर जॉर्ज बुश को भी आलमी सतह पर मुस्लमानों की तबाही और बर्बादी का ज़िम्मेदार गरदाना जाता है, चूँकि जो काम नरेंद्र मोदी ने रियास्ती सतह पर अंजाम दिया है वही काम सदर बुश ने आलमी सतह पर मुस्लमानों केलिए किया है बल्कि वो मोदी से दो क़दम आगे ही रहे। मैंने इराक़ वाफ़ग़ानसतान में इन की जानिब से मुसल्लत की गई गै़रक़ानूनी और ग़ैर अख़लाक़ी जंग और इस के नताइज का हवाला देते हुए साबित किया कि दोनों क़ाइदीन के किरदार में ऐसी मुमासिलत मौजूद है कि आप चाहते हुए भी इनकार नहीं करसकते। मैंने सवाल किया कि इस तनाज़ुर में सदर बुश के हवाले से आप की हुकूमत का क्या किरदार होना चाहिए ? शायद मेरे इस सवाल का उन के पास कोई जवाब ना था,और जवाब देते भी तो क्या, इस लिए स्टेट डिपार्टमैंट के एक ओहदेदारने इस सवाल को टालते हुए कहा ठीक है , हम आप के इस सवाल का जवाब बाद में देंगे हालाँकि इस इजलास के बाद अमरीकी ओहदेदारों के साथ मज़ीद चंद इजलास मुनाक़िद हुए मगर वो मेरे इस सवाल के जवाब से हमेशा गुरेज़ां ही रहे ।

मगर यहां में एक अहम नुक़्ता की तरफ़ इशारा करना चाहूंगा, अमरीकी शहरों के दौरे के दौरान वहां के हालात और अमरीका के आला ओहदेदारों से हमारी होने वाली बातचीत और मुबाहिस की बुनियाद पर मैंने जो नताइज अख़ज़ किए हैं इस की बुनियाद पर में ये कि सकता हूँ कि , अगरचे अमरीकी हुकूमत और ख़ास तौर पर9/11के मंसूबा साज़ इस बात को तस्लीम ना करें लेकिन ये हक़ीक़त है कि इस एक हादिसा के नतीजे में इस्लाम दुश्मन कुव्वतों को जो फ़वाइद हासिल हुए हैं वो अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में मग़रिबी इस्तिमारी गिरोहको हासिल होने वाले मजमूई फ़वाइद से किसी तरह कम नहीं कहे जा सकती, मसलन अमरीका में क़दामत पसंदों की बाला-ए-दस्ती, मशरिक़े वुसता में तेल के ज़ख़ाइर पर क़बज़ा ,वस्त एशीया में इसरो नफ़ुज़ क़ायम करने केलिए अफ़्ग़ानिस्तान की शक्ल में एक अच्छी कमीन गाह का हुसूल ,और ना सिर्फ मुस्लिम ममालिक बल्कि दीगर तरक़्क़ी पज़ीर ममालिक में अमरीका के हसब मंशा-ए-तबदीली इक़तिदार के मवाक़े वग़ैरा ,ये महिज़ चंद ज़ाहिरी फ़वाइद हैं जिस के ताने बाने 9/11हादिसे से जाकर मिलते हैं। ताहम इस हादिसे के दामन से चंद मुसबत पहलू भी उभरकर सामने आए ,क्योंकि ये फ़ित्रत का उसुल है ।

और इस्लाम की फ़ित्रत में क़ुदरत ने वो लचक दी है, तुम जितना तराशोगे ये इतना ही हरा होगाके मिस्दाक़ 9/11 के नाम पर इस्लाम ओर अहले इस्लाम के ख़िलाफ़ जितनी बदगुमानियां पैदा करने की कोशिश की गईं, लोगों में इस्लाम और अहल इस्लाम के हवाले से मालूमात हासिल करने का इश्तियाक़ ए तनाही बढ़ने लगा । नतीजा ये निकला कि मज़हब इस्लाम के ख़िलाफ़ चहार तरफ़ा हमला के बावजूद आज यहां के मुस्लमान माज़ी के मुक़ाबिल, तादाद में, मईशत और रोज़गार में, तालीमी और समाजी ज़िंदगी में,ज़्यादा बेहतर ,ज़्यादा चौकस और ज़्यादा बेदार हैं। यहां में अपनी बात की मज़ीद वज़ाहत केलिए चंद आदाद-ओ-शुमार पेश करना चाहूंगा,जो हालिया अर्से में मुख़्तलिफ़ इदारों की जानिब से किराए गए सर्वे पर मुश्तमिल हैं। मसलन जहां तक मुस्लिम आबादी का ताल्लुक़ है ,इस सिलसिले में सरकारी सतह पर किसी भी क़ौम वमज़हब के आदाद वशमार दस्तयाब नहीं हैं। अलबत्ता 2011की मर्दुमशुमारी के मुताबिक़ अमरीका की मजमूई आबादी 31करोड़ 24लाख 21हज़ार है जिस में मुस्लमानों की आबादी 2%से भी कम बताई जाती है।

अगर देढ़ ता पौने दो फ़ीसद भी मान लिया जाय तो ये तादाद 60लाखता 80लाख होती है जिस में सब से ज़्यादा तादाद अफ़्रीक़ी नज़ाद अमरीकी मुस्लमानों की है इस के बाद जुनूब एशियाई ,अरब,अफ़्रीक़ी,ईरानी, तुर्की, जुनूब मशरिक़ी एशीया, व्हाइट अमरीकन, मशरिक़ी यूरोपियनस, और दीगर इलाक़ों के मुस्लमान शामिल हैं। साल 2000-ए-के एक सर्वे के मुताबिक़ 1994में यहां सिर्फ 962मसाजिद थीं जबकि साल 2000-ए-में मसाजिद की तादाद 25% इज़ाफे़ के साथ 1209होगई । इसी तरह इस्लामी स्कूलस,मुस्लिम एसोसी एष्णस और पबलीकशनस की तादाद में भी इज़ाफ़ा हवाहै। ताहम ये आदाद वशमार एक दहाई क़बल की है । ज़ाहिर है इन दस बरसों के दरमयान भी उन की तादाद में ख़ातिरख़वाह इज़ाफ़ा हुआ है। चूँकि 9/11के मुक़ामी लोगों में मज़हब इस्लाम को जानने का इश्तियाक़ बढ़ा, और उन पर जब हक़ीक़त आशकार हुई तो उन में से बे शुमार मज़हब इस्लाम के आग़ोश में आगई।जुमा के दिन यहां भी मुस्लमानों का जोशोख़रोश क़ाबिल दीद होता है।

मुझे यहां एक बात बड़ी अच्छी लगी कि ख़ुतबा जुमा से क़बल इमाम साहिब ( जिन में अक्सरीयत लबनानी, मिस्री और दीगर अरब ममालिक के शहरीयों की होती है, और जिन्हें अंग्रेज़ी ज़बान पर ज़बरदस्त उबूर हासिल है) इस क़दर आमफहम अंग्रेज़ी ज़बान में हदीस पाक के मफ़ाहीम ,करानी आयात के मुतालिब ,और दीनी वशरई मसाइल ब्यान करते हैं कि मामूली फ़हम रखने वाले मुस्लमान भी सारी बातों को बख़ूबी समझ जाएं। हिंदूस्तानी मुस्लमानों के बरअक्स यहां के मुस्लमानों की अक्सरीयत वक़्त की पापनद ,मेहनती और अपने अपने फ़राइज़ के तईं काफ़ी संजीदा होते हैं। यही वजह है कि अमरीका में बसने वाले मुस्लमान मुतवस्सित तबक़ात के अमरीकीयों से ज़्यादा तालीम-ए-याफ़ता और उन की आमदनी भी आम अमरीकीयों के मुक़ाबले में बेहतर है। ताहम वो सयासी ज़िंदगी में शिरकत के मुआमले में पीछे रह गए हैं। हाल ही में गैलप सर्वे की जानिब से जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक़0%फ़ीसद से ज़ाइद मुस्लमान बरसर रोज़गार हैं। जबकि अमरीका की आम आबादी में बरसर रोज़गार अफ़राद का औसत 64फ़ीसद के क़रीब है।

मज़कूरा सर्वे मेंउस हक़ीक़त का भी इन्किशाफ़ किया गया है कि आला तालीम के हुसूल में सिर्फ यहूदी नौजवान अमरीकी मुस्लमानों से आगे हैं।सर्वे के मुताबिक़ तक़रीबन दो तिहाई से ज़ाइद मुस्लमान वोट देने केलिए रजिस्टर्ड हैं। लेकिन वो ऐसी मज़हबी कमीवनीटी है जो अपने वोट का इस्तिमाल सब से कम करती है। ताहम अमरीकी ख़ारिजा पालिसी पर उन के एतराज़ात में इज़ाफ़ा हवाहै। यहां भी मुस्लमानों की अक्सरीयत क़ानून नाफ़िज़ करने वाले इदारों और फ़ौज पर ज़्यादा एतिमाद नहीं रखते और दूसरे किसी भी ग्रुप के मुक़ाबले में अमरीकी मुस्लमानों की अक्सरीयत ये समझती है कि इराक़ और अफ़्ग़ानिस्तान की जंग एक ग़लती थी।सर्वे के दौरान 49फ़ीसद अमरीकी मुस्लमानों ने इस अमरिका खुल कर इज़हार कियाहै कि वो पहले अपने आप को मुस्लमान समझते हैं बाद में अमरीकी जबकि सिर्फ 20फ़ीसद मुस्लमानों का कहना था वो अपने आप को पहले अमरीकी समझते हैं।

हमारे दौरा के मौक़ा पर हमें एक इदारा मुस्लिम अफयर्स कौंसल का भी दौरा करवाया गया, जहां दो मिस्री नज़ाद ख़वातीन से हमारी मुलाक़ात हुई जिन में एक ख़ातून मग़रिबी तर्ज़ का लिबास ज़ेब-ए-तन किए हुई थीं तो दूसरी ख़ातून सर पर स्कार्फ़ और इस्लामी एतबार से ठीक ठाक लिबास में मलबूस थीं। ये दोनों ख़वातीन मुस्लमानों के बच्चाव केलिए काम करती हैं, इन से अक्सर टी वी चैनल्स राबिता करते हैं और मुस्लमानों की क्या राय होसकती है इस ताल्लुक़ से सवालात करते हैं, मगर ये दोनों ख़वातीन उसामा बिन लादन और इमाम अनवर ओलक़ी की सख़्त मुख़ालिफ़ थीं। बतौर अमरीकी मुस्लमान इन का ग़ुस्सा जायज़ नज़र आता है ताहम मैंने जितना अनवर ओलक़ी का मुताला किया है मैं ज़ाती तौर पर उन की तक़ारीर या लकचरज़ से मुतास्सिर हुआ हूँ।

इसी दौरा के दूसरे हिस्सा में मस्जिद के इमाम साहिब से मुलाक़ात हुई, उन्हों ने कहा कि वो अमरीकी जेल में दावत का काम भी करते हैं क्योंकि एक पादरी और एक इसराईली पादरी (रब्बी) भी वहां ऐसा ही काम करते हैं। 9/11 हमलों के बाद का ज़ख़म अभी भरा नहीं है और इसी को दुहरा दुहरा कर सीहोनी ताक़तें मुस्लमानों को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। अमरीका के मुस्लमान बहुत जल्द ही इस से वाक़िफ़ होते हुए और अपने आप को समाजी धारे में लाए हैं और हर फ़लाही काम ख़ाह वो मुस्लमानों का हो या फिर दूसरे मज़ाहिब का इस में मज़हबी रवादारी क़ायम रखने केलिए हम हिस्सा लेते हैं। मैं मेरी ज़िंदगी में उलझे मुल्क यानी अमरीका में कोई भी फ़ुर्सत में नहीं रह सकता, हर एक को काम करना है तो गाड़ी चल सकती है और शायद यही वजह है कि अमरीकी मुस्लमान घराने की आमदनी 50,000 अमरीकी डालर सालाना होती है।

अगर इस आमदनी को पैमाना बनालिया जाय तो मुस्लमानों का अमरीका की क़ौमी तामीर में बहुत बड़ा हिस्सा तसव्वुर किया जा सकता है। अमरीका की मसाजिद में ग़ैर मुस्लिम भी कभी भी हाज़िरी देने के लिए आसकते हैं, किसी भी तक़रीब में शिरकत करते हैं और बाहमी इत्तिहाद और भाई चारगी के फ़रोग़ के साथ साथ कोई अगर इस्लामी लकचर, ख़ुतबा सुन कर इस से मुतास्सिर होता है तो वो अपने शख़्सी मुताला के लिए वहां से लिटरेचर लेकर जा सकता है। शायद यही वजह है कि अमरीका में इस्लाम सब से तेज़ी से फैलने वाला मज़हब बन गया है। बाक़ौल एक मज़हबी शख़्स कि हम यहां ” To be different and Be a Muslim and yet Preserve our Culture is a big Task” पर अमल करते हैं और अपना लोहा भी मनवाने की सकत रखते हैं। चूँकि मुख़्तलिफ़ ममालिक के लोग यहां रहते बस्ते हैं इस लिए हम आसान ज़बान में ख़ुतबा देने की कोशिश करते हैं।

एक और मस्जिद के इमाम ने कहा कि हम यहां मज़हब के उमोर को तरजीही बुनियाद पर पेश करने की कोशिश करते हैं। मसलन स्कार्फ़ ज़रूरी है या ईमान। शायद इस लिए भी क्योंकि यहां प्रहर एक को सवाल करने की ख़ासी आज़ादी है, कोई भी किसी भी वक़्त समझ ना पाने पर सवाल करता है, इस लिए यहां ( अमरीका में ) इस्लाम रिवायती तौर पर नहीं बल्कि मंतिक़ से फलता और फूलता है। अलबत्ता यहूदी-ओ-नसरानी किस तरह साज़िशें रचते हैं वो आइन्दा मज़मून में बताने की कोशिश करूंगा।इंशाअल्लाह आने वाले मज़ामीन में अमरीकी सहाफ़त पर सैहोनी कंट्रोल और इस के असरात पर रोशनी डालने की कोशिश करूंगा