अमीर खुसरो के 714वें उर्स पर विशेष : खुसरो का ह. निज़ामुद्दीन औलिया से था बेपनाह मुहब्बत

नई दिल्ली : अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो (1253-1325) चौदहवीं सदी के लगभग दिल्ली के निकट रहने वाले एक प्रमुख कवि शायर, गायक और संगीतकार थे। अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा I उन्हे खड़ी बोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है I वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्हीं ने अपनी भाषा के लिए हिन्दवी का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथो की सूची लम्बी है। साथ ही इनका इतिहास स्रोत रूप में महत्त्व है।

मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन् (६५२ हि.) में एटा उत्तर प्रदेश के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (१२६६ -१२८६ ई0) के राज्यकाल में ‘’शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की माँ बलबनके युद्धमंत्री इमादुतुल मुल्क की पुत्री तथा एक भारतीय मुसलमान महिला थी। सात वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और २० वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। खुसरो में व्यवहारिक बुद्धि की कोई कमी नहीं थी। सामाजिक जीवन की खुसरो ने कभी अवहेलना नहीं की। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया। राजदरबार में रहते हुए भी खुसरो हमेशा कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सैनिक ही बने रहे। साहित्य के अतिरिक्त संगीत के क्षेत्र में भी खुसरो का महत्वपूर्ण योगदान है I उन्होंने भारतीय और ईरानी रागों का सुन्दर मिश्रण किया और एक नवीन राग शैली इमान, जिल्फ़, साजगरी आदि को जन्म दिया I भारतीय गायन में क़व्वालीऔर सितार को इन्हीं की देन माना जाता है। इन्होंने गीत के तर्ज पर फ़ारसी में और अरबी ग़जल के शब्दों को मिलाकर कई पहेलियाँ और दोहे भी लिखे हैं।

अमीर खुसरो के लेखन शैली की एक अतिउत्कृष्ट ग़ज़ल है “जिहाले मिस्किन”, जिसमे फारसी और हिंदी दोनों का एक साथ प्रयोग करते हुए, वो अपने महबूब, महबूब-ए-इलाही ह० निजामुद्दीन औलिया के प्रति अपने लगाव को लिखते हैं…

ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ

कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ

शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह

सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं

किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ

न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ

बहक्के रोजे विसाले दिल्वर
कि दाद मारा गरीब खुसरो

सपेत मन के बराय राखूं
जो जाए पाऊं पिया के पतियां

इनके तीन पुत्रों में अबुलहसन (अमीर खुसरो) सबसे बड़े थे – ४ बरस की उम्र में वे दिल्ली लाए गए। ८ बरस की उम्र में वे प्रसिद्ध सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य बने। १६-१७ साल की उम्र में वे अमीरों के घर शायरी पढ़ने लगे थे।

अमीर खुसरो का गुरु से बेपनाह अटूट इश्क की हद को पार कर गया था। जब खुसरो सात साल के थे, तब उनके पिता अमीर सैफुद्दीन महमूद उन्हें 22 साल के हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मुरीद बनाने उनकी ख़ानक़ाह ले गए। शिष्य बनाने के बाद निज़ामुद्दीन औलिया ने बाल खुसरो से पूछा ‘ए बच्चे, हमने तुम्हें आज से अपना बना लिया है। अब हम यह जानना चाहते हैं की अब तुम इस बारे मेन क्या सोचते हो। तुम्हारे मन मेन क्या ख्याल आ रहा है? यह सुनकर बालक खुसरो ने इस स्वाल का जवाब फारसी शायरी में दिया, जिसका भावार्थ है : ‘मैं तू हो गया और तू मैं बन गया। हम दोनों अलग अलग जिश्म थे, जो इसी पल से एक जान हो गए हैं।

जब 7 साल के बच्चे के मुख से हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने इतने बेहतरीन व उम्दा आवाज शेर सुने तो उन्होने खुसरो से कहा, ए मर्दे हक़ीक़त, आ फौरन इस फकीर के सीने से लग जा और इसी दम से, इसी पल से इसका हमराज़ हो जा।

एक बार दिल्ली के एक मुशायरे में बलबन के भतीजे सुल्तान मुहम्मद को ख़ुसरो की शायरी बहुत पसंद आई और वो इन्हें अपने साथ मुल्तान (आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब) ले गया। सुल्तान मुहम्मद ख़ुद भी एक अच्छा शायर था – उसने खुसरो को एक अच्छा ओहदा दिया। मसनवी लिखवाई जिसमें २० हज़ार शेर थे – ध्यान रहे कि इसी समय मध्यतुर्की में शायद दुनिया के आजतक के सबसे श्रेष्ठ शायर मौलाना रूमी भी एक मसनवी लिख रहे थे या लिख चुके थे। ५ साल तक मुल्तान में उनका जिंदगी बहुत ऐशो आराम से गुज़री। इसी समय मंगोलों का एक ख़ेमा पंजाब पर आक्रमण कर रहा था। इनको क़ैद कर हेरात ले जाया गया – मंगोलों ने सुल्तान मुहम्मद का सर कलम कर दिया था। दो साल के बाद इनकी सैनिक आकांक्षा की कमी को देखकर और शायरी का अंदाज़ देखकर छोड़ दिया गया। फिर यो पटियाली पहुँचे और फिर दिल्ली आए। बलबन को सारा क़िस्सा सुनाया – बलबन भी बीमार पड़ गया और फिर मर गया। फिर कैकुबाद के दरबार में भी ये रहे – वो भी इनकी शायरी से बहुत प्रसन्न रहा और इन्हे मुलुकशुअरा (राष्ट्रकवि) घोषित किया। जलालुद्दीन खिलजी इसी वक़्त दिल्ली पर आक्रमण कर सत्ता पर काबिज़ हुआ। उसने भी इनको स्थाई स्थान दिया। जब खिलजी के भतीजे और दामाद अलाउद्दीन ने ७० वर्षीय जलालुद्दीन का क़त्ल कर सत्ता हथियाई तो भी वो अमीर खुसरो को दरबार में रखा। चित्तौड़ पर चढ़ाई के समय भी अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी को मना किया लेकिन वो नहीं माना। इसके बाद मलिक काफ़ूर ने अलाउद्दीन खिलजी से सत्ता हथियाई और मुबारक शाह ने मलिक काफ़ूर से।