दहश्तगर्दी के इंसिदाद को अमेरीकी एजंडा में सर-ए-फ़हरिस्त बनाने वाले हुकमरानों ने इराक़ को बमबारी के ज़रीया तबाह करने के बाद अपनी फ़ौज वापिस लेने का अमल शुरू करके 9 साल की बर्बादी को भी अपनी अफ़्वाज के सीनों पर लगे तमगों पर सजाया है ।
इराक़ से अमेरीकी फ़ौज की वापसी इराक़ी अवाम के लिए सब से बड़ी राहत ज़रूर है लेकिन अमरीका ने जो शर्त पूरी करने के लिए इराक़ को तबाह किया इस का ग़मयाज़ा उसे कसादबाज़ारी, मईशत की तबाही और बेरोज़गारी की शक्ल में भुगतना पड़ रहा है। आलमी सतह पर मआशी बोहरान हो या यूरोप में यूरो वज़ोन बोहरान ये एक ऐसी तल्ख़ सच्चाई है जिस को आज मग़रिब का कोई भी ज़ी शऊर शहरी इनकार नहीं करसकता। इस तबाही की असल वजूहात में से एक वजह नाहक़ जंग है।
इराक़ के अवाम को उन की आज़ादी के नाम पर मुहर वसी की ज़िंदगी और तबाहकुन दिन रात के हवाले करके अमेरीकी फ़ौज ने 9 साल तक इराक़ की सरज़मीन पर अपने जूतों की टाप के ज़रीया मासूम अवाम के कानों को फाड़ने की कोशिश की मगर इस का बरअक्स अमल ये हुआ कि अमेरीकी सिपाहीयों के जूतों के टाप ख़ुद मग़रिब दुनिया के लोगों के लिए किसी धमाका ख़ेज़ आवाज़ से कम साबित नहीं हुई।
आलमी सतह पर सभी को इस बात का एहसास है कि अमेरीका ने नाहक़ इराक़ को जंग ज़दा मुल्क् बना दिया। इस्तिमारी ताक़तें जिस किस्म की ज़ालिमाना कार्यवाहीयां की हैं इस तरह के वाक़ियात से तारीख़ भरी पड़ी है। अमेरीकी सदूर बिल क्लिन्टन, जॉर्ज बुश या बारक ओबामा ने अपने अवाम के लिए कोई राहत कारी इक़दाम नहीं किया। आलमी सतह पर ख़ुद को सुपर पावर साबित करने वाले अमरीका को अपने सदूर की कार्यवाईयों की वजह से बदनाम होना पड़ा ।
सदर बारक ओबामा अपनी मीयाद के दूसरे दौर के लिए इंतिख़ाबी मैदान में हैं लेकिन उन्हें इराक़ जंग के हवाले से बिगड़ी हुई मईशत और बेरोज़गारी ख़सारा, फंड्स की क़िल्लत की वजह से अपनी ज़िंदगी के फ़ैसलाकुन मोड़ से गुज़रना पड़ेगा। सारी उम्र में या अपने पहले दौर की मुहिम में कभी उन्हें इतने शदीद तूफ़ान का सामना करना नहीं पड़ा होगा जितना कि अब उन्हें इंतिख़ाबात के ज़रीया अवाम की ब्रहमी और नाराज़गी का सामना करना पड़ रहा है।
वो अपनी इंतिख़ाबी मुहिम में दुनिया की नाम निहाद वाहिद बड़ी ताक़त के सरबराह की हैसियत से अपने मुस्तक़बिल के अज़ाइम और अमेरीकी अवाम की बहबूद की बातें कर रहे हैं। अमरीकी सदर ने ख़ासकर जॉर्ज बुश और बारक ओबामा ने बज़ाहिर दहश्तगर्दी को इस्लाम से मरबूत करने की मुख़ालिफ़त की , मगर इस्लाम को मर्कज़ी मुक़ाम बनाकर ही दहश्तगर्दी को निशाना बनाने की कोशिश की गई।
इराक़ जंग भी इस का एक हिस्सा थी जो अमरीका में ग़ैर मक़बूल होने के इलावा अवाम के लिए सख़्त नापसंदीदा जंग बन गई इस जंग ने अमरीका को आलम इस्लाम में बदनाम करदिया और वो मुस्लमानों के लिए नफ़रत का मर्कज़ बन गया। सवाल ये है कि इराक़ में सद्दाम हुसैन के इक़तिदार को बेदख़ल करके वहां के क़ीमती इस्लामी असासा को तबाह करके आख़िर अमेरीका को क्या हासिल हुआ।
9 साल की जंग के बाद इस ने इराक़ की सरज़मीन से अपनी फ़ौज वापस लेने के अह्द को पूरा तो क्या मगर वो बदनामी और हक़ारत-ओ-नफ़रत के सिवा कोई दूसरा मुनाफ़ा बख़श सौदा नहीं कर सका अमरीकी फ़ौज को जब बग़दाद एयर पोर्ट से अपने मलिक के लिए उड़ान भरना था तो इस के सिपाहीयों के आख़िरी क़ाफ़िला ने शायद ये सोचा होगा कि लब ख़ामोश, चशम ख़ुशक किया समझाएं तुझ को इराक़ जंग ने अमरीका को जो तबाही दी है जो बदनामी मिली है इस का अमरीकी सिपाहीयों के आख़िरी क़ाफ़िला
के ख़ामोश लब ब्यान नहीं कर सकी।
1.70 लाख फ़ौज लाई गई थी लेकिन वापसी में इस की तादाद घट गई , अमरीकी सिपाहीयों की हलाकतों की तादाद तो हज़ारों में हो सकती है मगर आदाद-ओ-शुमार से ज़ाहिर होता है कि अमरीका को इराक़ जंग में 4487 सिपाहीयों से महरूम होना पड़ा। इस के कई सिपाही ज़ख़मी और नफ़सियाती मरीज़ भी बन गए हैं।
इराक़ीयों के लिए ये जंग देखा है , कड़ी धूप में जलता और शोले उगलता हुआ सहरा थी और तबाही के दहाने पर पहोनचकर इराक़ीयों ने ये भी देखा है कि अमरीकी फ़ौज आज ख़ुद अपनी तबाही का मुशाहिदा कर रही है। इराक़ीयों ने इन नामसाअह हालात से गुज़रते हुए साबित करदिया है कि दूर बातिल में हक़ परस्तों की बात रहती है सर नहीं रहता। आज अमरीका जिस तरह ग़ैर महफ़ूज़ होचुका है इस का अंदाज़ा उस की तबाह होती मईशत से कहा जा सकता है ।
लेकिन अमेरीका और इस के सरबराहों के अलमीया अपनी ख़ताओं को दरुस्त करने के दो मौके तलाश करने होंगे एक आलम इस्लाम में इस की बिगड़ी शुबा बेहतर बनाने आलमी अमन का हक़ीक़ी अलमबरदार बन जाये दूसरा सयासी-ओ-मआशी बोहरान से ख़ुद को निकालने के लिए मुस्तक़बिल के जंग के नापाक मंसूबों को ख़तम कर दी। निहत्ते मासूम अवाम, नौजवानों, बच्चों औरतों और ज़ईफ़ों पर अमरीकी फ़ौज के मज़ालिम का नोट लिया जाये तो इस के कानों तक इराक़ में इंसानी आज़ादीयों को अपनी फ़ौज के बूट तले कुचलने की आवाज़ें भी सुनाई देंगी।
फिर इस के बाद इन्सिदाद-ए-दहशत गर्दी के नाम पर शुरू करदा जंग के नताइज का अंदाज़ा करसके तो लाखों मज़लूमों और बेकसूरों की आह-ओ-बका को राहत में बदलने के इक़दामात करने का जज़बा पैदा करे तो मुहब्बत के दरिया सामने होंगे अगर अमरीका अपनी पालिसीयों को मौजूदा आलमी मआशी बोहरान के तनाज़ुर में बनाने की कोशिश करे और आइन्दा जंगों के ख़ातमा का अह्द करे तो उसे इंसानी हुक़ूक़ के मुफ़ादात का तहफ़्फ़ुज़ करने में राहत मिलेगी।