इस्राईली टीवी चैनलों में एक ख़बर आ रही है कि इस्राईली सरकार की मांग पर एक अंतर्राष्ट्रीय आडिट संस्था एक दस्तावेज़ तैयार कर रही है जिसमें यह बताया जाएगा कि अरब देशों से पलायन करके फ़िलिस्तीन जाने वाले यहूदियों की इन देशों में लगभग 250 अरब डालर की संपत्तियां हैं जिनका मुआवज़ा इस्राईल में बसे इन यहूदियों को मिलना चाहिए। इस्राईल इस मांग को डील आफ़ सेंचुरी का हिस्सा बनाना चाहता है।
यदि इस्राईल मुआवज़े की मांग करता है तो इससे अरबों और फ़िलिस्तीनियों को यह मौक़ा हाथ आ जाएगा कि वह अपने उन शहरों और गांवों की ओर लौटने के अधिकार की मांग करें जहां से उन्हें निकालकर इस्राईल ने इन इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया है। 90 लाख से अधिक फ़िलिस्तीनी निर्वासन का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
यह फ़िलिस्तीनी शरणार्थी अब यहूदियों हर्जाना मांग सकते हैं क्योंकि यह यहूदी उनकी धरती पर पिछले 70 साल से जाकर बस गए हैं। यह एसा अधिकार है जिसे अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों में मान्यता दी गई है।
अरब और फ़िलिस्तीनी ज़ायोनियों से जो हर्जाना मांगेंगे वह उनकी भूमियों का मुआवज़ा नहीं बल्कि इस बात का हर्जाना है कि वह इन भूमियों को 70 साल तक प्रयोग करने का हर्जाना है। 70 साल तक ज़ायोनी सरकार और विदेशों से फ़िलिस्तीन पहुंचने वाले ज़ायोनियों ने इन भूमियों को इस्तेमाल किया है।
इस्राईली आंकड़ों के अनुसार लगभग 8 लाख 50 हज़ार यहूदी मिस्र, इराक़, लीबिया, ट्यूनीशिया, यमन और मोरक्को सहित अरब देशों से निकल कर फ़िलिस्तीन गए और वहीं बस गए। इस पूरी प्रक्रिया में इस्राईली ख़ुफिया एजेंसी मोसाद का महत्वपूर्ण रोल रहा।
अब तो दस्तावेज़ों से साबित हो चुका है कि इन यहूदियों को इन देशों से डराकर भगाने और फ़िलिस्तीन पहुंचाने में इस्राईली ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद का हाथ था जिसने अरब देशों में बसे यहूदियों के मुहल्लों में धमाके करवाए और यहूदियों में यह अफ़वाह फैलाई कि मुसलमान अरब उन पर हमले कर रहे हैं।
मोसाद ने यहूदी मुहल्लों में पम्फ़लेट चिपकाए जिसमें यहूदियों को चेतावनी दी गई थी कि वह इन इलाक़ों से निकल कर चले जाएं। दूसरी ओर मोसाद ने इन यहूदियों को बीच यह विचार फैलाया कि फ़िलिस्तीन उनके लिए सबसे सुरक्षित जगह हो सकती है अतः उन्हें वहीं चले जाना चाहिए। इस लक्ष्य के तहत कई फ़िल्में भी बनाई गईं।
जब इन साढ़े आठ लाख यहूदियों की भूमियों की क़ीमत 250 अरब डालर बताई जा रही है तो एतिहासिक धरती फ़िलिस्तीन में फ़िलिस्तीनियों की भूमि की क्या क़ीमत होगी जिसे हड़पकर यहूदियों को दिया गया है। फ़िलिस्तीन के हैफ़ा, याफ़ा, अका, अलक़ुद्स, तेल अबीब, मजदल तथा दूसरे सैकड़ों शहर और गांव हैं जिनकी कीमत लगाना भी असंभव है।
अधिकतर अरब सरकारों ने क़ानून बनाए कि जो यहूदी उनके देशों से निकल कर फ़िलिस्तीन गए हैं वह अपने असली गांवों और शहरों में वापस आ सकते हैं और अपनी संपत्ति पुनः हासिल कर सकते हैं मगर इस शर्त के साथ कि वह इन अरब देशों के वफ़ादार नागरिक बनें।
कुछ यहूदी यह क़ानून बनने के बाद वापस भी आए मगर उनकी संख्या बहुत कम थी। यहूदियों की वापसी में सबसे बड़ी रुकावट ख़ुद इस्राईली सरकार है जो अवैध अधिकृत फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों में बाहर से आकर बसे यहूदियों के अपने असली देशों की ओर पलायन से बहुत चिंतित है। यह यहूदी अब इस लिए भाग रहे हैं कि उन्हें इस्राईल असुरक्षित दिखाई दे रहा है क्योंकि इस्राईल के खिलाफ़ लड़ने वाला प्रतिरोधक मोर्चा दिन प्रतिदिन अधिक ताक़तवर होता जा रहा है।
इस्लामी प्रतिरोध मोर्चे में शामिल हमास और हिज़बुल्लाह जैसे संगठनों की ताक़त इतनी बढ़ गई है कि वह किसी भी इस्राईली इलाक़े को अपने मिसाइलों से निशाना बना सकते हैं।
हिज़्बुल्लाह के प्रमुख सैयद हसन नसरुल्लाह इन यहूदियों को नसीहत भी कर चुके हैं कि वह यूरोप या जहां कहीं से भी पलायन करके फ़िलिस्तीन आए हैं वहीं वापस लौट जाएं क्योंकि भविष्य में जो युद्ध होगा उसमें वह निशाना बनेंगे और इस्राईल में कोई भी सुरक्षित स्थान उन्हें दिखाई नहीं देगा।
फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों को भी अपने शहरों और गावों में लौट कर जाने का अधिकार है और वह इस अधिकार से पीछे हटने वाले नहीं हैं। यदि उन्होंने सैकड़ों अरब डालर दे दिए जाएं तब भी वह अपनी एक इंच ज़मीन भी नहीं छोड़ेंगे। अलबत्ता फिलिस्तीनी शरणार्थियों को यह अधिकार है कि सत्तर साल से उनकी भूमियों पर क़ब्ज़ा जमाए बैठे ज़ायोनियों से हर्जाना मांगें।
हाल ही में इस्राईल में अमरीका के राजदूत डेविड फ़्रेडमैन ने कहा कि उनकी सरकार डील आफ़ सेंचुरी के एलान को टाल रही है क्योंकि इस डील में अरब देशों में यहूदियों की भूमियों के 250 अरब डालर के मुआवज़े की बात कही गई है। यदि मुआवज़ा मांगा गया तो वह देश भी नाराज़ हो जाएंगे जो इस्राईल से रिश्ते स्थापित करने की कोशिश में हैं।
डील आफ़ सेंचुरी के एलान में देरी करने की जो वजह भी बताई जाए असली वजह यह है कि इस्लामी प्रतिरोधक मोर्चा जिसका नेतृत्व ईरान के हाथ में है और जिसमें इराक़ और सीरिया जैस देश तथा हिज़्बुल्लाह और हमास जैसे संगठन शामिल है, इतना ताक़तवर हो चुका है कि उसके मुक़ाबले में इस्राईल डरा हुआ है। हालत यह है कि 1973 से अब तक इस्राईल कोई भी युद्ध जीत नहीं पाया है और ज़मीन पर ताक़त का संतुलन पूरी तरह बदल चुका है। सीरिया और इराक़ भी काफ़ी ताक़तवर हो चुके हैं।
इस्राईल अब अगर 250 अरब डालर के मुआवज़े की बात कर रहा है और इसी कारण डील आफ़ सेंचुरी की घोषणा को टाले जाने की बात अमरीकी राजदूत कर रहे हैं तो यह खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचे वाली बात है।
साभार- ‘parstoday.com’