अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ सुई करो

ए ईमान वालो! जब (तुम्हें) बुलाया जाएनमाज़ की तरफ़ जुमा के दिन तो दौड़कर जाओ

अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ और (फ़ौरन) छोड़ दो ख़रीद-ओ-फ़रोख़त, ये तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम (हक़ीक़त को) जानते हो। फिर जब नमाज़ मुकम्मल तो फैल जाओ ज़मीन में और तलाश करो अल्लाह के फ़ज़ल से और कसरत से अल्लाह की याद करते रहा करो ताकि तुम फ़लाह पाओ । और (बाअज़ लोगों ने) जब देखा किसी तिजारत या तमाशा को तो बिखर गए उस की तरफ़ और आप को खड़ा छोड़ दिया। (ए हबीब! उन्हें) फ़रमाईए कि जो नेअमतें अल्लाह के पास हैं, वो कहीं बेहतर हैं लहू और तिजारत से, और अल्लाह ताली बेहतरीन रिज़्क देने वाला है। (सूरा अलजमा। ९ ता११)

इस रुकवा में नमाज़ जुमा के अहकाम और आदाब का ज़िक्र फ़रमाया जा रहा है। यहां मुख़ातब सिर्फ फ़र्र ज़िंदाँ इस्लाम हैं। इरशाद होता है कि ए ईमान वालो! जब तुम नमाज़ जुमा की अज़ान सुनो तो जलदी से अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ पहुंचने की कोशिश करो और इसी वक़्त ख़रीद-ओ-फ़रोख़त बंद क्रुद्व। बुलाने से मुराद जुमा की अज़ान है और अहनाफ़ के नज़दीक ये पहली अज़ान है, जो ख़ुतबा से कुछ देर पहले दी जाती है।

वो तमाम मशाग़ुल जो जुमा की हाज़िरी में रुकावट बन सकें, इन तमाम को तर्क करना ज़रूरी है और ख़रीद-ओ-फ़रोख़त का ज़िक्र इस लिए हुआ कि जुमा के रोज़ लोग बाहर से आते और बेचने के लिए अपना सामान भी लाते हैं और शहर से अपनी ज़रूरीयात खरीदकर भी ले जाते। शहर से मल्हाका बस्तीयों के लोगों के आने की वजह से जुमा के दिन बड़ी चहल पहल हो जाती और ख़रीद-ओ-फ़रोख़त का बाज़ार ख़ूब गर्म हो जाता, इस लिए ख़ुसूसीयत से ख़रीद-ओ-फ़रोख़त छोड़ने का हुक्म फ़रमाया गया। यानी ख़रीद-ओ-फ़रोख़त और जुमला मशाग़ुल को पसेपुश्त डाल कर मुकम्मल तैय्यारी से नमाज़ जुमा में हाज़िरी तुम्हारे लिए तमाम चीज़ों से ज़्यादा नफ़ा बख़श है।

ज़माना जहालत में इस दिन को अरूबा कहा जाता था। बाअज़ रवायात में ये है कि हुज़ूर अकरम सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम के जद अमजद काब बिन लोई उस रोज़ क़ुरैश को इकट्ठा करके ख़ुतबा दिया करते थे और उन्हें हुज़ूर सरवर आलम सिल्ली अल्लाह ताली अलैहि वसल्लम की बिअसत की ख़ुशख़बरी सुनाते और उन्हें ताकीद करते कि हुज़ूर सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम पर ईमान लाए और आप की नुसरत में ग़फ़लत से काम ना लें। वाज़िह रहे कि काब बिन लोई और हुज़ूर सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम की बिअसत के दरमयान पाँच सौ साठ साल का फ़ासिला है।

जुमा फ़र्ज़ ऐन है, इस की फ़र्ज़ीयत किताब-ओ-सुन्नत और इजमा-ए-उम्मत से साबित है और इस का इनकार कुफ्र है। क़ुरआन-ए-करीम की ये आयत जुमा की फ़र्ज़ीयत की मुहकम दलील है। इस के इलावा बकसरत अहादीस भी मौजूद हैं, जिन से इस की फ़र्ज़ीयत का पता चलता है। हज़रत इबन उम्र और हज़रत अबी हुरैरा रज़ी अल्लाह अन्हुमा कहते हैं कि हम ने नबी करीम सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम को मिंबर पर बैठे हुए ये फ़रमाते सुना कि जो लोग जुमा तर्क करते हैं, वो इस से ज़रूर बाज़ आजाऐं, वर्ना अल्लाह ताली उन के दिलों पर महर लगा देगा और वो ग़ाफ़िल हो जाएंगे। (रवाह मुस्लिम)

हज़रत अकरम सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जिस ने नमाज़ जुमा को मामूली और हक़ीर समझते हुए तीन जुमे तर्क किए, अल्लाह ताली इस के दिल पर महर लगा देगा। (अबोदाओद, तिरमिज़ी, नसाई)

हज़रत जाबिर रज़ी अल्लाह अन्ना कहते हैं कि रसूल अल्लाह सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जो अल्लाह और क़ियामत पर ईमान रखता है, इस पर जुमा फ़र्ज़ है, सिवाए मरीज़, मुसाफ़िर, औरत, नाबालिग़ और ग़ुलाम के। जो शख़्स किसी लहू-ओ-लाब या तिजारत के बाइस इस से बेपरवाही करता है, अल्लाह ताली इस बेपरवाही करेगा और अल्लाह ताली ग़नी और हमीद है। (इल्लदार क़ुतनी)