अल्लाह तआला से पाकदामनी और सेहत तलब करो

हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व० ने इरशाद फ़रमाया है कि जो शख़्स निकाह पर क़ुदरत ना रखता हो, उसे रोज़ा रखना चाहीए, क्योंकि रोज़ा इसके लिए वाजेह है। वाजेह् का मतलब शहवत को तोड़ने वाला या ख़त्म करने वाला है। रोज़ा रखने का मक़सूद भूखा रहना यानी पेट ख़ाली रखना है, जिससे तकब्बुर और शहवत दोनों का तोड़ होता है।

एक मर्तबा हज़रत बायज़ीद बुस्तामी रह० फ़ाक़ा के फ़ज़ाइल बयान फ़रमा रहे थे कि किसी ने पूछा हज़रत! ये भी कोई फ़ज़ीलत की चीज़ है?। आपने फ़रमाया हाँ, अगर फ़िरऔन को फ़ाक़ा से साबिक़ा पड़ता तो वो ख़ुदाई का दावा ना करता। इससे मालूम हुआ कि ये सब ख़र मस्तीयाँ पेट भरा होने की बिना पर होती हैं।

जिस नौजवान को पहले रोज़ा रखने की आदत ना हो, उसे चाहीए कि हर महीना की १३, १४ और १५ तारीख़ को अय्याम-ए-बैज़ के रोज़े रखे। जब आदत पुख़्ता हो जाये और शहवत पूरी तरह ना टूटे तो फिर पीर और जुमेरात के दो रोज़े रखे। फिर जब ये आदत भी पक्की हो जाये और मज़ीद रोज़ा रखने की ज़रूरत महसूस हो तो सोम दाऊदी रखे, यानी एक दिन रोज़ा और दूसरे दिन इफ़तार। ये मामूल सबसे बेहतर है।

ये बात ज़हन नशीन रहे कि पहले दिन रोज़ा रखने से शहवत पर कोई असर नहीं पड़ता, जबकि मुतवातिर कई दिन रोज़े का मामूल बना लेने से शहवत टूट जाती है। फिर एक काम ये भी करे कि सहर और इफ़तार में पेट भरकर ना खाए, वर्ना मक़सद फ़ौत हो जाएगा।

हुज़ूर अकरम स०अ०व० का इरशाद है कि व़ज़ू‍ मोमिन का असलाह है। लिहाज़ा शैतानी हमला से बचने के लिए व़ज़ू-ए-बेहतरीन ईलाज है। नौजवान लोग अगर बावज़ू रहने को अपनी आदत बना लें तो इबादत करना उनके लिए आसान हो जाए। व़ज़ू से इंसान को बातिनी जमईयत भी नसीब होती है और परेशान ख़्याल से नजात मिल जाती है।

शहवत पर कंट्रोल करने का एक बेहतरीन ईलाज ये भी है कि बारगाह ख़ुदावंदी में फ़रीयाद की जाये कि मेरे मौला! में कमज़ोर हूँ, मेरी मदद फ़रमा। मुझे गुनाह में मुलव्वस होने से महफ़ूज़ फ़रमा। हुज़ूर नबी करीम स०अ०व० से बहुत सी दुआएं मनक़ूल हैं। हज़रत अबू अमामा रज़ी० से मर्वी है कि हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व०के पास एक नौजवान आया और इसने ज़िना की इजाज़त तलब की।

सहाबा किराम ने इस सवाल को सख़्त नापसंद किया और उसे डाँटा। हुज़ूर स०अ०व०ने इस नौजवान को अपने क़रीब बुलाकर फ़रमाया क्या तुम अपनी माँ से किसी का ज़िना करना पसंद करते हो?। इसने कहा नहीं। फिर आप ने पूछा क्या तुम अपनी बेटी के साथ किसी का ज़िना करना पसंद करते हो?। नौजवान ने कहा नहीं।

फिर आप ने पूछा क्या तुम अपनी बहन के साथ किसी का ज़िना करना पसंद करोगे?। नौजवान ने कहा नहीं। आप ( स्०अ०व्०) ने पूछा क्या अपनी फूफी के साथ ज़िना करना पसंद करोगे?। इसने कहा नहीं। आप ने फ़रमाया क्या अपनी ख़ाला के साथ किसी का ज़िना करना पसंद करोगे?। इस नौजवान ने कहा नहीं। फिर आप ने इरशाद फ़रमाया कि तुम जिससे ज़िना करोगे, वो किसी की माँ होगी, बेटी होगी, बीवी होगी, फूफी होगी, ख़ाला होगी।

जिस तरह तुम ये पसंद नहीं करते, इसी तरह दूसरे लोग भी ज़िना को अपनी महरम औरतों के लिए पसंद नहीं करते। इसके बाद हुज़ूर स०अ०व० ने अपना दस्त शफ़क़त उस नौजवान के सीने पर रख कर फ़रमाया ऐ अल्लाह! इसके गुनाह माफ़ फ़रमा, दिल को पाक फ़रमा और इसकी शर्मगाह की हिफ़ाज़त फ़र्मा (इब्न कसीर) इस दुआ का असर ये हुआ कि इस नौजवान के दिल में फिर कभी ज़िना का ख़्याल भी नहीं पैदा हुआ।

अहादीस मुबारका में हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व०से और भी दुआएं मनक़ूल हैं, उनको मांगने से बहुत फ़ायदा होता है। चुनांचे आप ने दुआ फ़रमाई कि ऐ अल्लाह! मैं तुझसे हिदायत, तक़वा, पाकदामनी और गुना का सवाल करता हूँ (मुस्लिम-ओ-मशकोৃ) बाअज़ औक़ात आप (स०अ०व०) ये दुआ-फ़रमाते कि ऐ अल्लाह! में तुझ से सेहत, पाकदामनी, ख़ूबी और तक़दीर पर राज़ी रहने की दरख़ास्त करता हूँ (मशकोৃ) कभी ये दुआ फ़रमाते ऐ अल्लाह! मुझे सीधे रास्ते की रहनुमाई फ़र्मा और नफ़्स की बुराई से अपनी पनाह अता फ़रमा (तिरमिज़ी-ओ-मशकोৃ) बाअज़ अहादीस में ये दुआएं भी मनक़ूल है: ऐ अल्लाह! में बे अख़लाक़, बुरे आमाल और बुरी ख़ाहिशात से तेरी पनाह चाहता हूँ (तिरमिज़ी) बाअज़ अहादीस में ये दुआ भी आई है: ऐ अल्लाह! मैं औरतों के फ़ित्ना से तेरी पनाह चाहता हूँ।

सल्फ़ सालहीन के हालात-ए-ज़िंदगी से पता चलता है कि वो भी क़बूलीयत दुआ के औक़ात में शहवत के फ़ित्ना से अल्लाह तआला की पनाह मांगते थे। हज़रत बाएज़ीद बस्तामी रह० पर एक रात शहवत का ग़लबा हुआ, आपने दो रकात नफ़िल नमाज़ पढ़ कर अल्लाह तआला से दुआ मांगी। आप फ़रमाते हैं कि इसके बाद मेरे लिए औरत और दीवार में कोई फ़र्क़ ना रहा।

ये बात ज़हन नशीन रहे कि दुआएं पढ़ने से कुबूल नहीं होतीं, बल्कि दुआएं मांगने से कुबूल होती हैं। दुआ मांगने का मतलब ये है कि इंसान सरापा दुआ बन जाये। आँख नहीं रवी तो दिल रो रहा हो, दिल की गहराईयों से फ़रीयाद निकल रही हो कि ऐ मेरे मालिक! में कमज़ोर हूँ, तू क़वी है, हर कमज़ोर क़वी को मदद के लिए पुकारता है, लिहाज़ा मैं तुझ से फ़रीयाद करता हूँ कि मुझे औरत के फ़ित्ना से महफ़ूज़ फ़रमा और मेरी शहवत को मेरे क़ाबू में कर दे। फिर इसके नताइज देखिए!, सच्चे परवरदिगार का सच्चा क़ुरआन गवाही दे रहा है: कौन है जो बेक़रार की दुआ क़ुबूल करता है, जब वो उसको पुकारे। (मौलाना ज़ुल्फ़क़ार अहमद नक़्शबंदी)