अहद नबवी और अहद सहाबा में ख़वातीन की समाजी आज़ादी

इस्लाम ने औरत को जो हुक़ूक़ दिए हैं, उसकी मिसाल दूसरे मज़ाहिब में नहीं मिलती। इससे क़बल तारीख़ के पूरे दौर में मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब-ओ-नज़रियात के हामिलीन की तरफ़ से औरत के साथ ज़ुल्म-ओ-नाइंसाफ़ी की रविष क़ायम रही। इस्लाम ने औरत के समाजी मुक़ाम-ओ-मर्तबा को बुलंद किया। उसको इज़्ज़त-ओ-एहतिराम से नवाज़ा और उसकी फ़ित्रत के मुताबिक़ उसकी शख़्सियत की तशकील में बुनियादी रोल अदा किया। रसूलुल्ल्लाह स०अ०व० के इरशाद के मुताबिक़ आपको दुनिया की दो पसंदीदा चीज़ों में से एक पसंदीदा और महबूब चीज़ औरत थी।

आप ने दुनिया की सबसे बेहतर मता नेक और सालिह औरत को क़रार दिया। क़ुरआन में पूरी एक सूरत औरत के नाम से मानून है, जब कि मर्दों के नाम से कोई सूरत मौजूद नहीं है। इस्लाम औरत और मर्द दोनों में से किसी की हैसियत को कम नहीं करता।

क़ुरआन में अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है: मैं किसी शख़्स के काम को जो तुम में से करने वाला हो अकारत नहीं करता ख़ाह वो मर्द हो या औरत। तुम आपस में एक दूसरे के जुज़ हो (आल-ए-इमरान:१९५) क़ुरआन में दूसरी जगह कहा गया है कि : नेक अमल जो कोई भी करेगा मर्द हो या औरत बशर्ते कि साहिब ईमान हो तो हम उसे ज़रूर एक पाकीज़ा ज़िंदगी अता करेंगे। और अच्छे कामों के इव्ज़ ज़रूर इसे अज्र देंगे (अल नहल: ९७) इन दोनों आयतों से वाज़िह तौर पर मालूम होता है कि मर्द और औरत दोनों से नेक आमाल यकसाँ तौर पर ख़ुदा के नज़दीक मक़बूल हैं और अल्लाह तआला दोनों के पसंदीदा आमाल का यकसाँ अज्र देता है, चाहे उनका ताल्लुक़ दुनिया से हो या आख़िरत से।

एक बेहतर समाज की तशकील में औरत और मर्द दोनों के रोल की यकसाँ अहमीयत है। किसी एक के रोल को कली या जुज़वी तौर पर नज़रअंदाज करके एक तामीरी और फ़ित्री तौर पर मतलूब समाज की तशकील नहीं की जा सकती। इसमें शक नहीं कि औरत का बुनियादी दायराकार घर और ख़ानगी ज़िंदगी है और मर्द का बुनियादी दायराकार घर से बाहर की ज़िंदगी है। औरत दाख़िली उमूर की निगरां और मर्द ख़ारिजी उमूर का ज़िम्मेदार है।

ताहम ये समझना किसी भी तरह सही नहीं होगा कि मर्द को दाख़िली और ख़ानगी उमूर (जिनमें घर के माहौल की दुरुस्ती से लेकर बच्चों की परवरिश-ओ-पर्दाख़्त और तालीम-ओ-तर्बीयत शामिल है) से कोई मतलब नहीं और औरत को समाज और समाज की तामीर‍ ओ‍ तशकील से ताल्लुक़ रखने वाली ख़ैर की सरगर्मीयों से कोई सरोकार नहीं है।

बल्कि सही बात ये है कि औरत को अपनी फ़ित्री क़ुदरत‍ ओ‍ इस्तेताअत के लिहाज़ से और अपनी इफ़्फ़त-ओ-इस्मत की हिफ़ाज़त की शर्त के साथ समाजी सतह पर एक हद में रहते हुए मुतहर्रिक होने की इजाज़त है। समाजी तहरीकात में हिस्सा भी ले सकती है और दीगर ऐसे काम भी कर सकती है जिस में इंसानियत का मुफ़ाद मुज़म्मिर हो। अहद नबवी के बिशमोल खेरा लकर वन में उसकी कसरत के साथ मिसालें मिलती हैं।

क़ुरआन के मुताबिक़ हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम की बेटी जिनसे हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का निकाह हुआ बकरीयां चराया करती थीं। (अलक़सस:२३) ख़लीफ़ा दोम हज़रत अबूबकर सिद्दीक़ रज़ी० की साहबज़ादी हज़रत अस्मा रज़ी० घर से बाहर निकल कर अपने शौहर हज़रत ज़ुबैर बिन अल अवाम रज़ी० के कामों में हाथ बटाती थीं।

रिवायत के मुताबिक़ वो उनके घोड़ों की मालिश करतीं, उनके लिए दाने काटतीं और घर से बाहर किसी और जगह से ये दाने अपने सर पर उठाकर लाती थीं। (बुख़ारी-ओ-मुस्लिम)

अहद नबवी में बहुत सी ख़वातीन तिजारत या ख़रीद‍ ओ‍ फ़रोख्त किया करती थीं। हज़रत ख़दीजा रज़ी० की ताजिराना हैसियत इस क़दर मारूफ़ है कि इसके बाज़ाबता हवाले की ज़रूरत नहीं। हज़रत ख़दीजा रज़ी० की एक बहन थीं जिन का नाम हाला था, वो चमड़े की तिजारत करती थीं।

हज़रत साइब बिन अक़्रअ सक़फ़ी रज़ी० की वालिदा हज़रत मलीका रज़ी० इतर फ़रोशी का काम करती थीं। मुख़्तलिफ़ सहाबयात दस्तकारी की माहिर थीं और उन्होंने उसे बतौर पेशा इख्तेयार कर रखा था। मशहूर सहाबी हज़रत अबदुल्लाह इब्ने मसऊद रज़ी० की बीवी ऐसी ख़ातून थीं जो अपने बाल बच्चों की कफ़ालत करती थीं।

हज़रात सहाबयात का अहद नबवी की मुतअद्दिद जंगों में शरीक रहना दर्जनों रवायात से साबित है हज़रत रबी बिंत मऊज़ रज़ी० फ़रमाती हैं कि हम लोग हुज़ूर नबी करीम स०अ०व० के साथ ग़ज़वा में शरीक होते थे। हम लोगों को पानी पिलाते थे, उनकी ख़िदमत करते थे और मक़्तूलीन और ज़ख़्मीयों को मदीना मुंतक़िल किया करते थे। (बुख़ारी)

हज़रत उम्मे अतीया अंसारी कहती हैं कि मैं नबी करीम स०अ०व० के साथ सात ग़ज़वात में शरीक रही। में नबी करीम और सहाबा किराम के पीछे उनके ख़ेमों में रह जाती थी उनके लिए खाना बनाती थी, ज़ख़मीयों का ईलाज करती थी और मरीज़ों की तीमारदारी करती थी। (मुस्लिम)

हमारे दरमियान मुस्तहकम तौर पर ये तसव्वुर पाया जाता है और इस तसव्वुर की मुख़ालिफ़त के रवैय्या को शदीद किस्म की बद देर पर महमूल किया जाता है कि औरतों के लिए घर से बाहर के माहौल में बाज़ार सबसे ज़्यादा फ़ित्ना की जगह है। औरत की शख़्सियत और बाज़ार में तक़रीबन तज़ाद की निसबत पाई जाती है, लेकिन ज़रा इस वाक़िया पर ग़ौर कीजीए कि ख़लीफ़ा दोम हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ी० जो फिक्खाए सहाबा में मुमताज़ मुक़ाम के हामिल हैं। इसके साथ आप के इम्तियाज़ात में से ये भी है कि आप औरतों की हया-ओ-इस्मत के ताल्लुक़ से निहायत हस्सास ज़हन रखते थे ।

क़ुरआन में आयत हिजाब के नुज़ूल में उनकी इस ताल्लुक़ से ग़ैरत-ओ-हसासीयत की कारफ़रमाई थी। इन तमाम हक़ायक़ के साथ ये हक़ीक़त क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि उन्होंने एक सहाबिया शिफ़ा बिंत अबदुल्लाह अलादवीह को बाज़ार का निगरां और मुहासिब मुक़र्रर किया था। (फतावी यूसुफ़ अलक़रज़ावी जल्द दोम, स १६३, मर्कज़ी मकतबा इस्लामी , नई दिल्ली) इससे अंदाज़ा होता है कि अहद नबवी-ओ-अहद सहाबा की बहुत सी ख़वातीन की घर के काम काज पर ही नहीं बल्कि बाज़ारों पर भी निगाह थी।

क़ुरआन-ओ-हदीस और अहद सहाबा-ओ-अहद ताबईन के वाक़ियात के मुताला और तजज़िया से मालूम होता है कि औरतों के ताल्लुक़ से उस वक़्त मुस्लिम मआशरे में इफ़रात-ओ-तफ़रीत की जो कैफ़ीयत पाई जाती है, इस्लाम में इसकी गुंजाइश नहीं है। इस वक़्त सूरत-ए-हाल ये है कि एक तबक़ा जो मग़रिब की तहज़ीब-ओ-सक़ाफ़्त से ना सिर्फ़ मरऊब-ओ-मुतास्सिर, बल्कि उसकी तक़लीद के फंदे में गिरफ़्तार है, वो औरतों की इस सतह पर मुकम्मल आज़ादी का क़ाइल है, जिस सतह पर ये आज़ादी मर्दों को हासिल है।

वो औरत-ओ-मर्द के दरमियान बुनियादी और उसूली तौर पर किसी दायरा का रुकी तहदीद और नौईयत कार की तईईन का क़ाइल नहीं है और ऐसी किसी भी गुफ़्तगु को क़दामत परसती और तारीक ख़्याली पर महमूल करता है। जब कि दूसरा तबक़ा उन लोगों पर मुश्तमिल है, जो औरतों की समाजी सतह पर किसी भी किस्म की आज़ादी और तहर्रुक का क़ाइल नहीं है।

वो आख़िरी हद तक औरतों को चहारदीवारी के अंदर क़ैद कर देने का क़ाइल है। ये अलग बात है कि इस तबक़ा की औरतें भी इस नव की पाबंदीयों को कुबूल करने की अब रवादार नहीं हैं।

सही बात ये है कि ये दूसरा तबक़ा पहले तबक़ा के रद्द-ए-अमल में पैदा हुआ है। ये एक तयशुदा बात है कि रद्द-ए-अमल की नफ़सियात बहरसूरत इंसान को इफ़रात-ओ-तफ़रीत में मुबतला कर देती है। ज़रूरत इस बात की है कि मुस्लिम औरतों के लिए एक मोतदिल और इस्लाम की हक़ीक़ी रूह से क़रीबतर नुक़्ता-ए-नज़र इख़तियार किया जाये।

यही इस्लाम का मुतालिबा है और यही वक़्त का तक़ाज़ा है। ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍***********(प्रफेसर अख़तरुल-वासे)