अपने हकूक के हसूलयाबी के लिए पार्लियामानी सियासत में दाखिल ज़रूरी है। मगर अफसोसनाक पहलू ये है के 25 करोड़ हिन्दुस्तानी मुसलमान रास्त सियासत नहीं करते बल्कि सियासत के मोहरा बने हुये हैं। मोहरों की कभी कदर नहीं होती। शतरंज के खेल में भी वज़ीर की अहमियत होती है। सियासी बिसात पर मुसलमान कब तक मोहरा बने रहेंगे, ये कबीले तशवीश है। अब वक़्त आ गया है के मुसलमानों को वज़ीर की हैसियत से अपनी चाल बदलनी होगी। इक्तिदार में सीधे हिस्सादार बनना होगा। तब ही मुसलमानों का भाल हो सकता है।
जनता दल राष्ट्रवादी इसी फिक्र के साथ बिहार के गोशे-गोशे में इजलास कर मुसलमानों में सियासी बेदारी की मुहिम चला रही है। पार्टी के क़ौमी कोंवेनर आश्फ़ाक़ुर्रहमान ने बताया के जनता दल राष्ट्रवादी का बड़े पैमाने पर लोग पुरजोश इस्तकबाल कर रहे हैं। इसलिए की अपनी सियासत, अपनी कियादत और अपनी पार्टी से मुसलमान पहली बार रुबरु हो रहे हैं। बिहार की डेढ़ करोड़ मुस्लिम आबादी को अब महसूस होने लगा है की सभी सियासी जमातों ने उनका सिर्फ वोट बैंक के बतौर इस्तेमाल किया है। जब की मसायल का अंबार लगता गया और इसके हल की कोशिश में कभी इस पार्टी और कभी उस पार्टी में मुसलमान अपनी सियासी मुकद्दर तलाश करते रहे लेकिन उन्हें सिर्फ वादों की टोकरी के इलावा कुछ हाथ नहीं लगा। इस लिए ज़रूरी है के अपने बैनर तले मुसलमान ज़्यादा से ज़्यादा इंतिख़ाब में किस्मत अज़मायेँ और एवानों में पहुँचकर अपने हक़ की लड़ाई खुद लड़ें। क्योंके उनकी लड़ाई लड़ने वाला कोई नहीं है।
अगर सियासी जमातें मुसलमानों को बदहाली से निकालने की लड़ाई ईमानदारी से लड़ते तो आज इनकी हालत हरिजनों से बदतर नहीं होती। इस बात की तसदीक़ खुद हुकूमत के जरिये तशकील जस्टिस राजेन्द्र सिंह सहचर कमेटी और डॉक्टर रंगनाथ मिश्रा कमीशन की सिफ़ारिशात करती हैं।
इक्तिदार में हिस्सादारी का मतलब ये है की मरकज़ी और रियासती हुकूमतों की बजट में मुसलमानों की फ्लाह व बोहबुद के लिए अलग से बजट मुखतीस किया जाये। मरकज़ी और रियासती बजट को देख कर रोना आता है। जहां तमाम शोबों के लिए हज़ार करोड़ रुपए अलोट किए गए हैं वहीं मुस्लिम अदारों की तरक़्क़ी के लिए खातिर ख़्वाह रकम मुखतीस नहीं किया गया। इस से ही सियासी जमातों के मुसलमानों की ताईन ईमानदारी का पता चलता है।