इखलास और अल्लाह की रजा

जो अमल इखलास से किया जाता है उसमें ऐसी जुर्रत, मुस्तैदी और जोश होता है कि शैतान ऐसे शख्स पर गलबा नहीं पा सकता है और न ही उसे गुमराह कर सकता है। शैतान खुद कहता है- और मैं जरूर गुमराह करूंगा उन सबको सिवाए तेरे उन बन्दों के जिन्हें उनमें से चुन लिया गया है। (यानी तेरे मुखलिस बंदे, वह बन्दे जिनको तूने अपनी इबादत व इताअत के लिए चुन लिया और शकूक व शुब्हात की आलूदगियों से पाक व साफ रखा) इससे मालूम हुआ कि शैतान से छूटने का रास्ता अमल में इखलास है।

इखलास ऐसी नेक खसलत है कि इसकी बरकत से आदमी कई बदखसलतों मसलन बुग्ज, कीना, अदावत से महफूज रहता है। इसलिए हजरत अब्दुल्लाह बिन मसूद (रजि0) फरमाते हैं कि नबी करीम (सल0) ने फरमाया कि तीन बातें हैं कि जिनके होते हुए मर्द मुलसमान के दिल में बदखसलत मसलन बुग्ज दाखिल नहीं होता 1. इखलास के साथ अल्लाह तआला के लिए अमल करना 2. मुसलमानों की बेहतरी का ख्वाहिशमंद रहना 3. जमाअत के साथ रहना। (तिरमिजी)

अमल में इखलास न हो तो उसका नतीजा बहुत बुरा है। न यहां कुछ मिलेगा और न वहां। इसलिए एक हदीस में है कि नबी करीम (सल्लाहू अलैहि वसल्लम ) ने फरमाया कि कयामत के दिन जो लोग पहले पूछे जाएंगे, तीन शख्स होंगे। एक वह शख्स कि अल्लाह तआला ने उसको इल्म दिया।

उससे अल्लाह तआला सवाल फरमाएगा कि तूने अपने इल्म से क्या किया। वह कहेगा कि इलाही दिन-रात मैं इसी की खिदमत करता था। अल्लाह तआला फरमाएगा कि तू झूट कहता है और फरिश्ते कहेंगे कि तू झूट कहता है बल्कि तूने यह इरादा किया था कि लोग यूं कहे कि फलां शख्स आलिम है तो यह तो तुम्हारी ख्वाहिश के मुताबिक दुनिया में कहा गया।

दूसरा वह शख्स कि जिस को अल्लाह ने माल दिया। अल्लाह तआला उससे फरमाएगा कि मैंने तुझ पर इनाम किया तूने क्या किया। वह अर्ज करेगा कि इलाही रात दिन मैं सदका किया करता था। अल्लाह तआला फरमाएगा कि तू झूटा है और फरिश्ते भी कहेंगे कि तू झूट कहता है बल्कि तूने यह इरादा किया था कि लोग यूं कहेंगे कि फलां शख्स सखी है सो यह कहा गया। तीसरा वह शख्स जो खुदा की राह में मारा गया।

अल्लाह तआला उससे फरमाएगा कि तूने क्या किया। वह अर्ज करेगा इलाही तूने जेहाद का हुक्म दिया था इसलिए मैं लड़ा हूं यहां तक कि मारा गया। अल्लाह तआला फरमाएगा कि तू झूटा है और फरिश्ते भी उसको झुटलाएंगे और कहेंगे कि तेरा मकसद यह था कि लोग कहें कि फलां शख्स बहादुर है तो यह कहा गया। इस हदीस के रावी हजरत अबू हुरैरा (रजि0) बयान करते हैं कि फिर नबी करीम (सल्लाहू अलैहि वसल्लम ) ने मेरी रान पर एक लकीर खींची और फरमाया कि ऐ अबु हुरैरा! सब से अव्वल इन ही तीन शख्सों से जहन्नुम की आग भड़काई जाएगी। (एहयाउल उलूम)

यानी उन लोगों में इखलास न था बल्कि यह दिखावे और नुमूद के लिए अमल करते थे। इसलिए उनको कुछ सवाब न मिला बल्कि रिया की सजा में उल्टा अजाब भुगतना पड़ा। यहां भी यही जाब्ता है यानी दुनिया में भी इखलास ही कामयाबी की अस्ल बुनियाद है। कोई बजाहिर नेकी का कितना ही बड़ा काम करे लेकिन अगर उसकी निसबत यह मालूम होजाए कि उसका मकसद उस काम से कोई जाती गरज या महज दिखावा और नुमाइश था तो उस काम और खुद उस शख्स की कद्र व कीमत फौरन निगाहों से गिर जाएगी।
यहां यह भी जानना चाहिए कि इखलास के वजूदन और अदमन तीन दर्जे है। एक यह कि अगर अमल से मकसूद सिर्फ रिया व
नुमाइश और तलबे शोहरत हो तो यह तो बिल्कुल इखलास के खिलाफ है।

जाहिर है कि ऐसे अमल पर कोई सवाब न होगा बल्कि वह अजाब व गजब का मूजिब होगा। दूसरे यह कि अमल सिर्फ अल्लाह की खुशनूदी के लिए हो यही गायते इखलास है और यही मकसूद और मतर्बा-ए-कमाल है और यह अमल यकीनन सवाब का मुस्तहक है। इन दोनों की मिसाल यूं समझे कि मसलन एक शख्स नमाज सिर्फ इसलिए अदा करता है कि उससे अल्लाह तआला राजी हो इसके सिवा और कोई नीयत न हो। यह इखलास का दर्जा-ए-कमाल है। एक यह सूरत है कि नमाज पढ़ते हुए किसी दूसरे शख्स को दिखाने का ख्याल हो कि फलां शख्स उसका खुशूअ व खुजूअ देख कर उसे नेक बख्त समझे और उसको नजरे ताजीम से देखे उसका मोतकिद हो जाए। यह इखलास के बिल्कुल खिलाफ है।

तीसरा दर्जा यह है कि अमल मखलूत हो यानी जिसमें आमेजिशें रिया हो तो उसमें तफसील है वह यह कि अगर बाइसे दीनी (यानी कसदे सही) और बाइसे नफ्सी (कसदे फासिद) दोनों बराबर हो तो दोनों की कुछ तासीर न रहेगी। ऐसे अमल का न सवाब ही होगा न अजाब (मतलब यह कि वह अमल तो बहरहाल बर्बाद ही हुआ) और अगर बाइसे रिया गालिब होगा तो उस अमल से कुछ फायदा न होगा बल्कि नुक्सान पहंुचेगा और मूजिबे अजाब होगा।

हां उसका अजाब उस अमल के अजाब से हल्का होगा जिस का बाइस महज रिया व नुमाइश हो और अगर कसदे तकर्रूबे इलाही दूसरे बाइस की निस्बत कव्वीतर होगा तो जिस कदर कुवत बाइसे दीनी यानी तकर्रूब की ज्यादा होगी उसी कदर उसका सवाब होगा।
इसको मिसाल से यूं समझे कि मसलन किसी को हरारत की चीजों से नुक्सान होता है और उसने गर्म चीजें खाईं फिर उन गर्म चीजों की कुवत की मिकदार पर सर्द चीजों का इस्तेमाल किया तो दोनों के खाने के बाद ऐसी कैफियत होगी कि गोया कोई चीज खाई ही नहीं और अगर दोनों में से कोई गालिब होगी तो मिकदार गलबा की जरूर तासीर करेगी तो जिस तरह की कोई जर्रा खाने-पीने की दवा का जिस्म में अल्लाह तआला की आदत के बमूजिब जिस्म में तासीर के नहीं रहता उसी तरह कोई जर्रा खैर व शर का भी तल्फ नहीं होता। दिल में रोशनी या तारीकी का असर जरूर पहुंचता है और अल्लाह तआला से करीब या दूर जरूर करता है।

अलबत्ता इंसान जब कोई अमल करता है उसे खुद यह इल्म नहीं होता कि उसके अमल में रिया व नुमाइश का पलड़ा भारी है या इखलास का इसलिए अव्वल तो कोशिश करनी चाहिए कि अमल में गायत दर्जे का इखलास पैदा हो दूसरे यह कि अमल के बाद हमेशा फिक्रमंद रहना चाहिए कि आया मेरा अमल मकबूल और सवाब का मुस्तहक भी है। क्योंकि कई बार इबादत में कोई ऐसी आफत (मसलन रिया, अजब, खुद पसंदी शोहरत वगैरह) पेश आती है कि जिस का वबाल सबाव की निस्बत ज्यादा होता है लेकिन बावजूद इन आफतों के यह भी न होना चाहिए कि आफते रिया के खौफ से अमल को छोड़ दिया जाए। यह भी शैतान का फरेब है क्योंकि उसकी गायत आरजू और मकसद यही होता है कि आदमी को अमल न करने दे। अगर ऐसी आफतों के डर से अमल छोड़ दिया जाए तो शैतान जीत जाए और खुशियां मनाने लगे। क्योंकि जब अमल तर्क कर दिया जाए तो अमल और इखलास दोनों जाते रहेंगे। (एहयाउल उलूम) (
(बुरहान रशीद)

बशुक्रिया: जदीद मरकज़