अम्बिया ए किराम अच्छे अखलाक की तालीम व तलकीन के लिए आते हैं, दिल व ज़हन और फिक्र व नजर तब्दील करने के लिए आते हैं, हुलिया तब्दील करने नहीं आते। यह मुम्किन भी नहीं कि दुनिया के तमाम इंसानों के लिए एक लिबास और एक ही हुलिया कयामत तक के लिए मुतअय्यन कर दिया जाए।
इंसान का फितरी तकाजा है कि इन मामलात में शख्सी मिजाज, कौमी या इलाकाई मआशरत और तमद्दुन की रियायत रखी जाए। फिर यह भी एक हकीकत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की तमाम सुन्नते एक ही दर्जे की नहीं है। बाज सुन्नते ऐसी हैं जिन्हें हम तशरीई सुन्नत कह सकते हैं। मसलन नमाज का तरीका नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की सुन्नत है।
कुरआन मजीद में नमाज के बारे में सिर्फ इतना हुक्म है- नमाज कायम करो। यह कहीं नहीं बताया गया कि नमाज किस तरह पढ़ी जाए। लेकिन आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने बताया कि नमाज किस तरह पढ़ी जाए। इस बारे में आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने वाजेह तौर पर इरशाद फरमाया कि नमाज इस तरह पढ़ो जिस तरह तुम मुझे पढ़ता हुआ देखते हो।
यह आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की तशरीई सुन्नत है। इसकी हैसियत कुरआन के एक हुक्म की तफसील है। अल्लाह के हुक्म की तशरीह है जिसका ताल्लुक मंसबे रिसालत के फरायज से है। अब अगर कोई शख्स चाहे कि मैं सजदे पहले कर लूं या रूकूअ बाद में करूं या कुरआन के किसी हिस्से की तिलावत पहले कर लूं और सूरा फातेहा बाद में पढ़ लू तो यह बात नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की तशरीई सुन्नत के खिलाफ होने की वजह से उसकी नमाज न होगी।
हर चीज या हर हुक्म का एक तो मकसूद अस्ली होता है और यही उसकी रूह होती है। दूसरे, उस चीज या हुक्म की सूरत होती है जिसको हम कालिब भी कह सकते हैं। बाज मामलात ऐसे होते हैं जिनमें रूह और सूरत दोनों मतलूब होते हैं। मसलन इबादात कि इनकी रूह खुशूअ व खुजूअ और इनका कालिब उनकी शक्ल व सूरत या उनका तरीका।
यह वह सुन्नते हैं जो मकासिद बअसत से ताल्लुक रखती हैं और यहां दोनों ही चीजें मतलूब हैं। यानी खुशूअ व खुजूअ भी और उनकी मखसूस शक्ल व सूरत भी। यही हाल रोजे, हज और जकात का है कि इनमें रूह और कालिब दोनों मतलूब है।
लेकिन बाज मामलात ऐसे होते हैं जिनकी रूह तो जरूर होना चाहिए लेकिन कालिब की पैरवी हुबहू जरूरी नहीं। मसलन मसनून दुआएं। यहां हमें आजादी है कि रूह को बरकरार रखते हुए हम जो चाहें कालिब अख्तियार कर लें। नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) जो दुआएं फरमाते थे उन्हीं अल्फाज के साथ दुआएं करना हम पर लाजिम नहीं बल्कि उन दुआओं की रूह को बरकरार रखते हुए जिन अल्फाज या जिस जबान में चाहें दुआएं कर लें।
शारेअ का मंशा पूरा हो जाएगा। अगर हम नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के उन्हीं अल्फाज के साथ दुआएं करें तो यह मुस्तहब तो समझा जाएगा लेकिन यह इत्तबा सुन्नत का लाजमी तकाजा नहीं समझा जाएगा।
हमारे यहां जाहिरी और आसान सुन्नतों पर इस तरह जोर दिया जाता है जैसे यही मकसूदे बअसत है। इस बारे में हमारी रविश यह हो गई है कि हम छोटी-छोटी सुन्नतों को तो जरूर अहमियत देते हैं लेकिन जो अहम सुन्नते हैं जिनका ताल्लुक मकासिदे बअसत से है उनको हम नजरअंदाज कर देते हैं।
मसलन एक मशहूर वाक्या आपने भी सुना होगा। बअसत से पहले किसी खरीद व फरोख्त के मामले में अब्दुल्लाह बिन अबी हमसा ने आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) से कहा कि आप ठहरे मैं अभी आता हूं। और आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने ठहरने का वादा फरमा लिया। मगर वह शख्स भूल गया।
इत्तफाकन तीसरे दिन अब्दुल्लाह का गुजर उसी मकाम से हुआ तो देखकर हैरान रह गया कि नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) उसी मकाम पर तीन दिन से ठहरे हुए हैं। आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने अब्दुल्लाह से सिर्फ इतना ही कहा- तुम ने मुझे जहमत दी।
मैं तीन दिन से यही ठहरा हुआ हूं इस वाक्ए में हमारे सामने आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की तीन सुन्नते आती हैं। एक, सब्र व तहम्मुल, दूसरी ईफा-ए-अहद और तीसरी दरगुजर। ठंडे दिल से सोचिए अगर कोई शख्स आप को कहीं खड़ा करके चला जाए तो क्या आप वहां ठहर कर तीन दिन तक उसका इंतजार कर सकते हैं।
आज हम ऐसे वाक्यात सीरत की किताबों में पढ़ कर आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की सवानेह (Biography) के तौर पर बयान करते हैं लेकिन इसको हम सुन्नत नहीं समझते।
एक बार नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने हजरत आयशा सिद्दीका (रजि0) से फरमाया कि आयशा! आओ आज हम तुम दौड़ लगाएं देखे कौन आगे निकलता है। इसलिए दौड़ में हजरत आयशा आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) से आगे निकल गईं और आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) बाद में पहुंचे।
एक अर्सा बाद आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने फिर एक बार हजरत आयशा (रजि0) को दावते मुसाबकत दी लेकिन इस अर्से में हजरत आयशा (रजि0) का जिस्म जरा भारी हो चुका था जिसका नतीजा यह निकला कि वह पीछे रह गई और नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) आगे निकल गए। अब आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने फरमाया- ऐ आयशा! आज मैंने तुमसे पिछली दौड़ का बदला ले लिया।
इस सुन्नत का मतलब यह नहीं है कि आप भी अपनी बेगम के साथ दौड़ लगाए। यह सुन्नत का कालिब है जो जरूरी नहीं। लेकिन इस सुन्नत की रूह यह है कि बीवी के साथ ताल्लुकात खुशगवार होना चाहिए। यह न हो कि बीवी के साथ भी आदमी जाहिद खुश्क और मौलवी ही बना रहे।
यह एक या चंद मिसाले मैंने बतौर नमूना पेश की है वरना पूरी सीरत ऐसी मिसालों से भरी पड़ी है। एक एक वाक्ये से कई-कई सुन्नते मालूम होती हैं। यही वजह है कि खुद आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने भी अपनी हयाते तैयबा और सीरते तैयबा के लिए ‘‘सुन्नत’’ का लफ्ज ही इस्तेमाल फरमाया है। आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) का इरशाद है कि मैं तुम में दो भारी चीजें छोड़ रहा हूं एक किताबुल्लाह भी दूसरी मेरी सुन्नत।
आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के अखलाके आलिया के बारे में कुरआन ने शहादत दी है जिसका मतलब यह है कि मुहासिने अखलाक में मदावमत अमल, हुस्ने मामला, अदल व इंसाफ, जूद व सखा, ईसार, मेहमान नवाजी, मसावात, तवाजे व इंकसार, शर्म व हया, अज्म व इस्तेकलाल, रफीकुल कल्बी, अयादत व ताजियत, हमदर्दी, गम ख्वारी, सब्र व शुक्र, तवक्कुल, रफ्तार व गुफ्तार, सदाकत, दयानत, शराफत, शगुफ्ता मिजाजी वगैरह यह और इसी तरह के बीसियों उनवानात है जिनको सीरत निगार ‘‘अखलाके नबवी’’ के तहत बयान करते हैं।
लेकिन यह सब आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की सुन्नते हैं जिनकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता। जैसे लिबास और इबादात की चंद सुन्नतों को लेकर हम समझ बैठे हैं कि बस यह सुन्नते हैं लेकिन हकीकत यह है कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की सुन्नतों से सीरत की सारी किताबें भरी हुई हैं उनको हम उनवान देकर सीरतुन्नबी और मीलादुन्नबी के जलसों की रौनके बढ़ा लेते हैं। हालांकि बुनियादी तौर पर यह सब सुन्नतें ही हैं उनपर अमल करना ईमान का तकाजा है।
नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की एक ऐसी सुन्नत बता दूं कि अगर उस पर अमल कर लिया जाए तो हमारी तमाम खराबियों की जड़ कट जाएगी और हम कुंदन बनकर चमक उठेंगे। लेकिन उस सुन्नत की तरफ किसी का ख्याल तक नहीं जाता। आम आदमी तो दूर, बड़े-बड़े जैयद उलेमा को भी एहसास नहीं कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की एक सुन्नत यह भी है।
वह सुन्नत यह है कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने अपनी निजी जिंदगी को अवामी जिंदगी बना दिया था जिससे आप की हयात खुली किताब बन गई। जो आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) का ज़ाहिर था वही बातिन था और जो बातिन था वही जाहिर था।
अगर आज हम इस सुन्नत पर अमल कर लें तो जाहिर व बातिन की यकसानियत से हमारी जिंदगियां कितनी पाकीजा, कितनी रौशन और कितनी मिसाली बन जाएंगी। मगर हमारे ख्याल में भी यह बात नहीं आती कि यह भी कोई सुन्नत है। जिसपर अमल करना चाहिए। हम कितने खुश नसीब हैं कि आज हमारे पास वहि भी है और महबिते वहि भी, कुरआन भी है और सुन्नत भी लेकिन हम कितने बदनसीब हैं कि न हम कुरआन को समझ रहे हैं और न सुन्नतों को न उनपर गौर करते हैं न उनको अपनाते हैं सिर्फ सूफिया-ए-कराम के यहां यह तालीम है कि अपने जाहिर व बातिन को यकसां कर लो।
इस सुन्नत को सिर्फ उन्हीं बुजुर्गों ने अपनाया है। मैं जो बात आपसे कहना चाहता हूं वह यही है कि सिर्फ चंद सुन्नतों पर इक्तफा न करें बल्कि तमाम सुन्नतों को अपनाएं और खास तौर पर उन सुन्नतों की रूह को अपना लें। गैर जरूरी तौर पर सूरत और कालिब के पीछे न लग जाएं। मोहब्बत और इत्तबा का आपस में बड़ा अजीब व गरीब ताल्लुक है। इत्तबा से मोहब्बत बढ़ती है और मोहब्बत से इत्तबा में इजाफा होता है। इसी तरह यह दोनों एक दूसरे की दलील और सबूत होते हैं। दुआ कीजिए अल्लाह तआला हम सब को आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के इत्तबा की तौफीक अता फरमाए- आमीन।
बशुक्रिया: जदीद मरकज़