इराक़ में 2 मीलियन बेवाऐं कसमपुर्सी की ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर

बग़दाद 11 नवंबर । ( एजैंसीज़) इराक़ में 2003 -ए-में अमरीकी मुदाख़िलत के बाद सूरत-ए-हाल इंतिहाई दगरगों हो गई है । हलीमा दाख़िल नामी ख़ातून जिन के शौहर इराक़ जंग की नज़र हो गयॆ, आज इंतिहाई बेबसी की ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर है ।

वो मेहनत मज़दूरी करके माहाना 250 डालर तक की रक़म जमा कर पाती हैं लेकिन ये मकान के किराए और उन के पाँच बच्चों की कफ़ालत केलिए बिलकुल नाकाफ़ी हैं। हलीमा दाख़िल ऐसी तक़रीबन 2 इराक़ में 2 मीलियन बेवाऐं कसमपुर्सी की ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर ख़वातीन में से एक हैं जो इस जंग में बेवा होगईं और आज एक वक़्त की रोटी के लिए तरस रही हैं।

उन्हों ने अपनी बिप्ता सुनाते हुए कहा कि माहाना 210 डालर की रक़म बतौर किराया अदा करने के लिए मजबूर हैं । वो एक मैडीकल क्लीनिक में सफ़ाई का काम अंजाम देती हैं। इन के ख़ानदान का गुज़ारा पड़ोसीयों और दीगर अफ़राद के रहम-ओ-करम पर है । उन्हों ने रोते हुए बताया कि 2006 -ए-में उन के शौहर जंग में हलाक हो गए , जिस के बाद से उन्हें एक बाप और माँ दोनों की ज़िम्मेदारी मुशतर्का तौर पर अदा करनी पड़ रही है।

घर का किराया ही इन केलिए एक बोझ बन चुका है और काफ़ी मेहनत के बाद वो किराया अदा करने के मौक़िफ़ में होती हैं। हलीमा ने बताया कि दहश्तगरदों ने इस के शौहर , भाई और भतीजे को सर क़लम करके हलाक करदिया जबकि वो सूबा-ए-दयाला में अपनी पुरानी कार फ़रोख़त करके दूसरी ख़रीदने केलिए जा रहे थी। बग़दाद के मशरिक़ में वाक़्य ये सूबा नसली और मसलकी तशद्दुद से बुरी तरह मुतास्सिर रहा है ।

ताज्जुब की बात तो ये है कि हलीमा के शौहर सुनी हैं और सनी दहश्तगरदों ने उन्हें शीया समझ कर हलाक करदिया क्योंकि उन के पास जो शनाख़ती बीच मौजूद था वो सदर सिटी के शीया सल्लम इलाक़े से जारी किया गया था। हलीमा एक शीया ख़ातून है लेकिन उन्हें शौहर की मौत के बाद शुमाली बग़दाद के सदर सिटी में जहां सुन्नी अक्सरीयत में हैं बेदखल कर दिया गया। इस वक़्त उन के पास कोई रक़म या सामान मौजूद नहीं था। इन के ख़ानदान ने भी उन की कोई मदद नहीं की।

उन्हों ने ये जानना चाहा कि आख़िर उन के शौहर का क़सूर किया है ? बेगुनाह अफ़राद को क्यों इसतरह ज़ुलम का शिकार बनाया जा रहा है ? इराक़ में नसली तशद्दुद और जंग के दौरान एक अंदाज़ा के मुताबिक़ एक लाख से ज़ाइद अफ़राद हलाक हुए हैं। वज़ीर-ए-बहबूद ख़वातीन इबताल ग़ाज़ी उल-ज़ैदी ने कहा कि एक अंदाज़ा के मुताबिक़ मुल्क में बेवा ख़वातीन की तादाद तक़रीबन 2 मुलैय्यन हो चुकी है।

इन में अक्सरीयत 2003 में अमरीकी ज़ेर-ए-क़ियादत इत्तिहादी फ़ौज के दाख़िले और माबाद फूट पड़े तशद्दुद मैं बेवा होने वालों की है। 1980ए- के दहिय में ईरान । इराक़ जंग और फिर ख़लीजी जंग ने इराक़ ने को ज़्यादा नुक़्सान पहुंचाया है । इंसानी हुक़ूक़ की तंज़ीम रीलीफ़ इंटरनैशनल के अंदाज़े के मुताबिक़ 1.5 मुलैय्यन बेवा ख़वातीन इराक़ में मौजूद हैं। इंटरनैशनल कमेटी रेडक्रास का कहना है कि इराक़ में ऐसी ख़वातीन की तादाद एक मुलैय्यन से मुतजाविज़ है ।

कई बेवा ख़वातीन इस नई ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त के साथ जी रही हैं जहां उन्हें क़लील आमदनी और ख़ानदानी ताईद-ओ-तहफ़्फ़ुज़ के बगै़र अपने बच्चों की परवरिश जैसी गिरांक़द्र ज़िम्मेदारी निभानी पड़ रही है । सद्दाम हुसैन के दौर में बॆवाऒ को माहाना वज़ीफ़ा दिया जाता था। इस के इलावा उन्हें अराज़ी और कार भी दी जा रही थी जिस के ज़रीया वो अपनी मदद आप करने के मौक़िफ़ में थीं। सद्दाम हुसैन ने ऐसे फ़ौजीयों केलिए इनामात रखे थे जो बॆवाऒ से शादी करॆ।

लेकिन उन की माज़ूली के बाद तमाम फ़वाइद ख़तन होचुके हैं। इराक़ी ख़वातीन का कहना है कि सरकारी पैंशन का हुसूल इन दिनों नामुमकिन हो गया है क्योंकि ऐसे बद उनवान मुलाज़मीन की तादाद बहुत ज़्यादा है जो महिज़ ज़ाबता की कार्रवाई के लिए भारी रक़ूमात तलब करते हैं। एक मुतल्लक़ा ख़ातून ने बताया कि उसे पैंशन ऑफ़िस पर दफ़्तरी उमोर अंजाम देते हुए अपना नाम दर्ज कराने केलिए तक़रीबन एक साल जुस्तजू करनी पड़ी लेकिन आख़िर-ए-कार उन्हें मायूसी हुई ।