इंसानों को तीन बुनियादी दर्जों में तक़सीम किया जा सकता है:
(१) फ़ित्रतन अच्छे लोग जिन्हें किसी तरग़ीब से गुमराह नहीं किया जा सकता और वजदान ही उन्हें किसी चीज़ के अच्छे या बुरे होने की ख़बर दे देता है |
(२) इस के बिलकुल बरअक्स लोग नाक़ाबिल इस्लाह होते हैं |
(३) वो लोग जो इन दोनों के दरमियान के दर्जे में होते हैं कि अगर उन्हें मुनासिब निगरानी और पाबंदी में ग़लत कामों से रोका जाये तो वो सीधे रास्ते पर चल सकते हैं, लेकिन रहनुमाई ना मिलने या उनके हाल पर छोड़ देने के नतीजे में वो ग़फ़लत का शिकार हो जाते हैं और दूसरों पर ज़ुल्म-ओ-नाइंसाफ़ी के मुर्तक़िब हो जाते हैं।
इंसानों की अक्सरीयत इस तक़सीम के तीसरे दर्जे से ताल्लुक़ रखती है, जब कि पहले और दूसरे दर्जे में आने वाले लोगों की तादाद बहुत कम होती है। पहले दर्जे के लोगों (इंसानी फ़रिश्तों) को किसी किस्म की रहनुमाई या निगरानी की ज़रूरत नहीं होती, जब कि दूसरे दर्जे में आने वालों (इंसानी शैतानों) के लिए सख़्त निगरानी और बुरे कामों से रोकने का एहतिमाम ज़रूरी है। तीसरी किस्म (आम इंसानों) को भी राहे रास्त पर रखने के लिए बड़ी तवज्जा की ज़रूरत है।
तीसरे दर्जा से ताल्लुक़ रखने वाले लोग बाअज़ ख़ुसूसीयात के हवाले से जानवरों से मुशाबहत तक पहुंच जाते हैं। जो कुछ उनके पास है, वो इस पर क़ाने रहते हैं और ख़ामोश ज़िंदगी गुज़ारते हैं। जब तक कि वो इससे बेहतर चीज़ दूसरों के पास ना देख लें या उन्हें दूसरों की तरफ़ से किसी शरारत का शुबा ना हो जाये।
मुख़्तलिफ़ तराग़ीब से मुतास्सिर होकर बुराई की तरफ़ माइल होने का इंसानी फ़ित्री रुजहान हमेशा मौज़ू बैहस रहा है और इस पर बहुत अर्क़ रेज़ि की गई है। इस तरह एक बाप ख़ानदान का सरबराह होने की हैसियत से अपने बच्चों को, जब कि क़बीला का सरदार, सरबराह रियासत या कोई ग्रुप लीडर अपने ज़ेर-ए-असर अफ़राद को, जो कुछ उन के पास है उसी पर क़नाअत करने पर मजबूर करता और उन्हें दूसरों की जायज़ और क़ानूनी मिल्कियत छीनने या क़बज़ा करने से बाज़ रखने की कोशिश करता है।
शायद इंसानी मुआशरे का यही मक़सद है कि तराग़ीब के जाल फैलाने को रोका जाये और जो नुक़्सान पहले हो चुका है, उसकी तलाफ़ी की जाये।
तमाम इंसान यहां तक कि एक ही क़ौम के तमाम अफ़राद एक जैसे नहीं होते। एक नेक फ़ित्रत शख़्स दूसरे के लिए क़ुर्बानी देने और उनकी तरह से मदद पर कमरबस्ता रहता है। एक दूर अंदेश शख़्स नताइज पर भी नज़र रखता है और इस तरह फ़ौरी फ़ायदे को नजर अंदाज़ करके अपने आप को ग़लत काम से बचाता है।
जहां तक आम इंसान का ताल्लुक़ है, ना सिर्फ़ ये ख़ुद ख़ुशी से क़ुर्बानी पर आमादा नहीं होता, बल्कि दूसरों का हक़ मारने से भी बाज़ नहीं आता, सिवाए इसके कि मुतास्सिरा फ़रीक़, मुआशरा या फिर किसी दूसरी ज़्यादा ताक़तवर पार्टी की तरफ़ से इंतिहाई सख़्त और फ़ौरी रद्द-ए-अमल का ख़ौफ़ ना हो।
लेकिन ऐसी रूहें भी हैं, जिन्हें किसी किस्म का ख़ौफ़ भी बुराई से बाज़ नहीं रख सकता और वो अपनी मुजरिमाना जिबलत के तहत, तमाम रुकावटों को फलांगते हुए जराइम की राह पर भागती चली जाती हैं, यहां तक कि मुआशरा उन्हें किसी ऐसी सूरत-ए-हाल से दो चार कर दे कि वो बेबस हो जाएं।
मसलन उन्हें सज़ाए मौत दे दी जाये या क़ैद में डाल कर दूसरे इंसानों को उनकी वहशत से महफ़ूज़ बना दिया जाये।
दुनिया के तमाम क़ानून, तमाम मज़ाहिब और तमाम नज़रियात आम इंसानों यानी तीसरे दर्जे मे आने वाले लोगों को आमादा करने की कोशिश करते हैं कि वो शाइस्ता अत्वार का मुज़ाहरा करें और ग़रीबों, ज़रूरतमंदों और मुहताजों की मदद के लिए रज़ाकाराना क़ुर्बानी दें।इस्लाम एक मुकम्मल ज़ाबता हयात है। ये ना सिर्फ़ मुस्लमानों का मज़हबी अक़ीदा, बल्कि उनके लिए समाजी ज़िंदगी के ज़वाबत का सरचश्मा भी है।
इसके अलावा इस्लाम अपने क़वानीन के मुकम्मल इतलाक़ पुर इसरार करता है और हम इस हक़ीक़त से आगाह हैं कि इस्लाम इस दुनिया की ज़िंदगी को ज़्यादा एहमीयत देने की बजाय इस बात पर यक़ीन रखता है कि ये ज़िंदगी आख़िर कार ख़त्म हो जाने वाली है, जबकि इसके नज़दीक रूह को अलग करके इंसानी ज़िंदगी को महिज़ जिस्म यानी माद्दी ज़रूरीयात और ख़ाहिशात तक महिदूद करना भी ठीक नहीं, बल्कि उसकी तालीमात का ज़्यादा ज़ोर आख़िरत की ज़िंदगी पर है।
इसका उसूल जैसा कि क़ुरआन ने बयान किया है: इस दुनिया में भी अच्छाई और आख़िरत में भी अच्छाई इस तरह ना सिर्फ़ ये कि इस्लाम अच्छाई को सराहता है, बल्कि बुराई की मुज़म्मत भी करता है और रुहानी-ओ-माद्दी दोनों तरह से इनामात भी देता है और सज़ाएं भी। जहां तक इस्लाम के अंदर अवामिर-ओ-नवाही का ताल्लुक़ है, इस्लाम रूह के अंदर तक़वा नीज़ रोज़ हिसाब और दोज़ख़ के अज़ाब का ख़ौफ़ सुमो देता है, लेकिन इन सबको काफ़ी ना समझते हुए इस्लाम इंसान को ज़ुल्म, नाइंसाफ़ी और दूसरों के हुक़ूक़ सल्ब करने से रोकने के लिए माद्दी सज़ाओ की सूरत में भी तमाम मुम्किन इक़दामात करता है।
अक्सर-ओ-बेशतर ऐसा होता है कि मुख़्तलिफ़ अफ़आल के पसेपर्दा मक़ासिद, इरादा या कारफ़रमा हालात इस के मआनी-ओ-मफ़ाहीम को बिलकुल तब्दील कर देते हैं, हालाँकि बज़ाहिर वो अफ़आल एक जैसे मालूम होते हैं। मसलन किसी बदमाश शख़्स
के हाथों किसी का क़त्ल, किसी शिकारी की ग़लती से जानवर की बजाय किसी इंसान का मारा जाना। किसी नासमझ, कमसिन लड़के से या हक़ दिफ़ा के तौर पर किसी का क़त्ल सरज़द हो जाना।
अदालत से मिलने वाली सज़ाए मौत पर अमल करते हुए जल्लाद का किसी को ज़िंदगी की क़ैद से आज़ाद करना, बैरूनी हमला के ख़िलाफ़ वतन का दिफ़ा करते हुए फ़ौजी सिपाही के हाथों दुश्मन की हलाकत वग़ैरा। इन तमाम वाक़ियात में इंसानी जान के ज़या पर रद्द-ए-अमल मुख़्तलिफ़ है। बाअज़ औक़ात क़ातिल को माफ़ी मिल जाती है तो बाअज़ औक़ात क़त्ल को मामूल की डयूटी तसव्वुर किया जाता है और इस पर ना तहसीन की जाती है ना ही मुज़म्मत,जब कि कभी क़ातिल को एज़ाज़ से भी नवाज़ा जाता है।
इंसानी ज़िंदगी के कम-ओ-बेश तमाम अफ़आल के अच्छे या बुरे होने का इन्हिसार मुख़्तलिफ़ अवामिल पर है। इसी हवाले से हदीस नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम है आमाल (के अच्छे या बुरे होने) का दार-ओ-मदार नीयतों पर है।