इस्लाम चाहता है कि मुसलमान दौलत हासिल करे

माल व दौलत दुनियावी जिंदगी की ज़ीनत है मआश और मआशी वसायल माद्दी एतबार से इंसानी समाज की बुनियाद है। इसी के जरिए इंसान अपनी उस खुराक व पोशाक, घर व मकान और जरूरियाते जिंदगी को हासिल कर सकता है जिस के लिए वह अपनी जिंदगी में रात व दिन लगा रहता है।

इसी के जरिए इंसान अपनी जिंदगी को कायम व बाकी रख सकता है और कुवत व तवानाई के साथ जी सकता है। इसके बगैर बेकीमत हो जाता है। जिस कौम के पास माल व दौलत नहीं होता वह सख्तियों और मुश्किलों से दोचार हो जाती है, तंगी, गरीबी, पस्ती, पिछड़ापन और कमजोरी का तूफान उसे उड़ा ले जाता है। दूसरी दौलतमंद ताकतें उस पर टूट पड़ती और उसे अपना निवाला समझने लगती हैं। वह इस्तेहसाल का शिकार हो जाती है। उसकी इज्जत व वकअत, जिल्लत व हिकारत में तब्दील हो जाती है और वह बड़े सख्त व जान लेवा इम्तहान से गुजरने लगती है।

फिर उसे अपने दीन व मजहब को भी बाकी रखना दुश्वार हो जाता है और वह तरह-तरह के फितनों का निशाना बन जाती है। इसीलिए इस्लाम ने इस पहलू पर खास ध्यान दिया और इबादात व रियाजत ही की तरह माली व इक्तेसादी मसायल पर भी ध्यान देने का उम्मते मुस्लेमा को पाबंद बनाया है और क्यों नहीं जबकि माल ही जिंदगी की रीढ़ की हड्डी इंसानी ढांचे या जिस्म की रगे और माद्दी कुवत व ताकत की बुनियाद है।

मुसलमानों के लिए माली फराहमी व फरावानी इसलिए भी जरूरी है कि इसी के जरिए वह कुवत हासिल की जा सकती है और ताकत जमा की जा सकती है जिसे इकट्ठा करने की तलकीन व ताकीद अल्लाह तआला ने अपनी किताब में की है ताकि मुसलमान अपनी इस ताकत के जरिए हक का बचाव कर सके, बातिल को खौफ जदा कर सके, फितनों का हल निकाल सके, दुनिया से बदअम्नी का खात्मा करके उसे पुरअम्न बना सके और तमाम इंसानों को सुकून व इत्मीनान और अम्न व अमान के साथ जीने का मौका फराहम कर सके।

अल्लाह तआला का इरशाद है-‘‘ (तर्जुमा) तुम उनके मुकाबले के लिए अपनी ताकत पर कुवत की तैयारी करो और घोड़ों को तैयार रखो कि उससे तुम अल्लाह के दुश्मनों को खौफजदा रख सको और उनके सिवा औरों को भी, जिन्हें तुम नहीं जानते अल्लाह उन्हें खूब जान रहा है जो कुछ भी अल्लाह की राह में खर्च करोगे वह तुम्हे पूरा-पूरा दिया जाएगा और तुम्हारा हक न मारा जाएगा।’’(इंफाल-60)

इस्लाम में माल सोने-चांदी या करेंसी नोट तक महदूद नहीं है बल्कि माल का इतलाक इस्लाम में हर ऐसी चीज पर होता है जिसमें इंसान के लिए मुंफअत हो और वह शरअन जायज हो जैसे जमीन, जायदाद, फल-फ्रूट, जानवर व चैपाए, आलात व मशीनरीज व गल्ला। कुरआने मजीद में माल और इक्तेसादियात का तजकिरा बेशुमार आयतों में आया है।

खुद माल का लफ्ज कुरआन में छियासी (86) मरतबा आया है। कभी मफर्द और कभी जमा की सूरत में, कभी मारफा और कभी नकरा, कभी इजाफत के साथ और कभी बगैर इजाफत के इतनी जगहों पर तो इसका तजकिरा सरीह अल्फाज में है और जिमनी तौर पर या इशारतन तो इससे बहुत ज्यादा बार हुआ है।

आम तौर पर इसका तजकिरा सनअत व हिरफत, असराफ व तहजीर पर (फुजूल खर्ची) बुख्ल व कंजूसी, खजाना व जखीरा अंदोजी, सूदी मामलात, नापतौल में कमी करने, शादी व्याह, तलाक व खुला, मीरास और हुदूद कफ्फारात से मुताल्लिक आयतों में आया है।

कुरआन ही की तरह सुन्नते नबवी में भी माल व मआश का तजकिरा बेशुमार आया है। गोया किताब व सुन्नत ने दुनिया वालों के सामने चंद हकायक वाजेह किए हैं जो माल से मुताल्लिक इस्लाम के नजरिया पर रौशनी डालती है। इस्लाम ने इन माली मामलात से मुताल्लिक आयतों व अहादीस के जरिए इस सुतून की निशानदेही की है जिस पर इस्लाम में इक्तेसादी निजाम और मआशी सरगर्मियों की बुनियाद है।

किसी भी इंसानी समाज में इक्तेसादी सरगर्मियों का मेहवर बनने वाला माल दरहकीकत अल्लाह की मिलकियत है। यह माल अल्लाह का है और इंसान उसमें महज खर्च करने का मजाज है। चूंकि यह माल इंसान का नहीं बल्कि अल्लाह का है इसीलिए इंसान के लिए दुरूस्त नहीं कि वह उसमें बेजा खर्च करे और उसे कमाने या उसे खर्च करने में अल्लाह की तरफ से आयद कर्दा हुदूद से बाहर जाए।

यह दुरूस्त है कि कुरआन की बाज आयतों में माल की निस्बत इंसान की तरफ की गई है। मगर यह निस्बत मजाज बतौर तबीयत के है। यह सिर्फ इस पर दलालत करती है कि इंसान उससे फायदा उठाने का मालिक बन गया है। उन्हें इसके अन्दर हक हासिल हो गया है कि वह इसमें खर्च करे, अपने और दूसरे की भलाई में इसे खर्च करे और इसमें सरमायाकारी करे और इजाफा करने की जद्दोजेहद करे।

इस्लामी माहिरीने इक्तेसादियात ने इस हकीकत की तरफ इशारा करते हुए वजाहत की है कि इंसान दौलत को पैदा नहीं करता बल्कि उसे अल्लाह ने पैदा किया और अल्लाह ही पैदा करता है। उसके अंदर इंसान का अमल महज जाहिरी शक्ल में है वह महज अल्लाह की पैदा कर्दा चीजों के अंदर उलट फेर करता, मुख्तलिफ शक्लों में उसमें तब्दीली लाता और उसके अंदर रंग भरता है ताकि वह लोगों के लिए काबिले मुनाफा बन जाए।

माल पर इंसान की मिलकियत नहीं बल्कि उसका हकीकी मालिक अल्लाह है इस हकीकत को अल्लाह तआला ने यूं वाजेह किया है- ‘‘(तर्जुमा) और उन्हें अल्लाह के माल में से दे दो जो माल अल्लाह ने तुम्हें दिया है।’’ (सूरा नूर-33)

इंसान इसका मालिक नहीं इंसान की तरफ उसकी निस्बत मजाजन है। अल्लाह तआला का इरशाद है।-‘‘ (तर्जुमा) और उनके माल में मांगने वालों का और सवाल से बचने वालों का हक है।’’ (अल जारियात-19)

चूंकि माल अल्लाह का है और सारी मखलूक अल्लाह की अयाल है इसलिए सब के सब इस माल को हासिल करने में इससे फायदा उठाने और इसकी सरमायाकारी करने में बराबर है। इसीलिए इस्लाम ने लोगों को दावत दी है कि वह माल के मालिक बनें और इसे अपनी मिलकियत में जायज अमल, मशरूअ तरीके और हलाल कमाई के जरिए रखें।

अल्लाह का इरशाद है -‘‘ (तर्जुमा) वह जात जिसने तुम्हारे लिए जमीन को पस्त व मातहत कर दिया ताकि तुम उसकी राहों में चलते-फिरते रहो और अल्लाह की रोजियां खाओ (पियो) उसी की तरफ (तुम्हें) जी कर उठ खड़ा होना है।’’ (सूरा मुल्क-15)

अल्लाह तआला का इरशाद है-‘‘(तर्जुमा) उसी ने इस जमीन में तुम्हें बसाया है पस तुम उससे माफी तलब करो और उसकी तरफ रूजूअ करो। बेशक मेरा रब करीब और दुआओं को कुबूल करने वाला है।’’(सूरा हूद-61)

यानी अल्लाह ने हुक्म दिया है कि इस जमीन को खेतों, पेड़-पौद्दों, इमारतों, जमीनी मिट्टी, मदनियात और दूसरी चीजों में तहकीक करके आबाद किया जाए और हर ऐसे अमल के जरिए उसको आबाद करने की कोशिश की जाए जो लोगों के लिए नाफेअ व बेहतर हो और उससे जमीन आबाद हो, उससे जमीन और जमीन पर बसी आबादी व चीजों को नुक्सान न पहुंचे।

हमें यह भी समझना चाहिए कि इस्लाम की निगाह में माल, माल पैदा नहीं करता बल्कि इंसान माल हासिल करता है, अमल व जद्दोजेहद के जरिए या माल को किसी पैदावारी मंसूबा या प्रोजेक्ट में लगाकर और वह भी इस तरह कि उससे हासिल होने वाले मुनाफे साहबे माल और उसमें काम करने वाले के बीच तकसीम हो और अगर नुक्सान हो तो दोनों उसे बरदाश्त करें। इसकी शर्ते और कवायद फकही किताबों में तफसील से मजकूर है। माली मामलात करने वालों को शरई तौर पर इसकी पाबंदी करना जरूरी है।

इस्लाम चाहता है कि माल लोगों के हाथ में हो और उसे खैर व भलाई, भाई चारगी, रहम व करम और आपसी तआवुन के लिए ही इस्तेमाल किया जाए। इसीलिए इस्लाम ने हर ऐसे मामले को हराम कर दिया है जिससे दूसरों का माल बातिल तरीके पर खाया और हड़पा जाए जैसे चोरी, गसब, सूद खोरी, जो माल कमाने का निहायत बदतरीन और खबीस तरीन तरीका है, जो भाई चारगी और लोगों के बीच मेल जोल और प्यार व मोहब्बत को तार-तार कर देता है और उसकी जगह बुग्ज हसद को परवान चढ़ाता है और आखिरकार कौमों व लोगों को फुक्र व फाका, महरूमी व बर्बादी में मुब्तला कर देता है।

चूंकि इस्लाम में माल जिंदगी गुजारने का वसीला है यही मकसूद अस्ली और जिंदगी की गरज व गायत नहीं है। इसलिए इस्लाम चाहता है कि इस माल को सही मकाम पर रखा जाए। अगर कोई शख्स इस माल को उस जगह से हटाकर दूसरी ऐसी जगह पर रखता है जिसके लिए उसे पैदा नहीं किया गया है और इंसान उसके जायज फायदे के हुदूद से बाहर हो जाता है तो लाजमी तौर पर उसके नतीजे में अय्याशी के अंदर इंसान ख्वाहिशाते नफ्सानी की तकमील और जरूरियात को पूरा करने में हद से ज्यादा मुबालगा व इफरात करने लगता है और माल के इस्तेमाल में इफरात यकीनी तौर पर दूसरों की कीमत पर हुआ करता है।

इंसान जिस कदर इसमें गर्क होगा दूसरे उससे मुतास्सिर होंगे और भूक व प्यास का सामना करेंगे। हजरत मआविया (रजि0) ने बजा फरमाया था-‘‘ हर असराफ व फुजूल खर्ची के मुकाबले पर बर्बाद होने वाला हक है।’’ हजरत अली (रजि0) का कौल है-‘‘कोई भी फकीर व नादार मालदारों की लुत्फ अंदोजी ही की वजह से भूका रहता है।’’ बिल शुब्हा अय्याशी अखलाक को बिगाड़ देती है, माल को बर्बाद कर देती है और समाजी राब्ते के ताने-बाने को तार-तार कर देती है।

‘‘और जब हम किसी बस्ती की हलाकत का इरादा कर लेते हैं तो वहां के खुशहाल लोगों को (कुछ) हुक्म देते हैं और वह उस बस्ती में खुली नाफरमानी करने लगते हैं तो उनपर (अजाब) साबित हो जाता है फिर हम उसे तबाह व बर्बाद कर देेते हैं।’’(सूरा असरा-16)

उम्मते मुस्लेमा अगर किसी समाजी मुश्किलात या सियासी मसायल से दोचार हो जाए तो उसे माल के बगैर हल नहीं किया जा सकता, इफिरादी व इज्तिमाई मिलकियत उसकी पाबंद है कि माल खर्च किया जाए और इस तरीके से मुश्किलात व मसायल पर काबू पाने की कोशिश करे ताकि उन मसायल का खात्मा हो और उसका बार-बार सामना न हो।

असराफ व फुजूल खर्ची की सख्त मुमानअत का मकसद ही यह है कि अखलाकियात को बिगाड़ से बचाया जाए, माल व दौलत को बर्बादी से रोका जाए और इक्तेसादी सरगर्मियों को मंदी से तहफ्फुज फराहम किया जा सके और माद्दी पैदावार को नुक्सान से रोका जा सके।

असराफ व फुजूलखर्ची और ऐश व इशरत में हद से ज्यादा मुबालगा दौलत को बर्बाद करता, खजाने को खाली करता और दीन से रोक देता है बिला शुब्हा इसमें मुल्की, समाजी और अफरादी मफाद का नुक्सान है जिससे इक्तेसादी जिंदगी की तरक्की व खुशहाली रूक जाती है और उम्मत तरह-तरह के नुक्सानात और खतरों से दो चार हो जाती है।

यही वजह है कि इस्लाम ने माल की हिफाजत के मकसद से फुजूलखर्ची, हद से ज्यादा अय्याशी और जखीराअंदोजी से मना किया है। इसका मतलब है कि इस्लाम अपने उसूल और मुतवाजिन तालीमात के जरिए माल की हिफाजत करता और उसे बर्बाद होने से बचाता है क्योंकि माल ही जिंदगी की रगे और रीढ़ की हड्डी है और उन लोगों की पकड़ करता है जो इसे हड़प करना चाहते हैं, इसे पामाल करते और इसकी कद्र नहीं करते और इसे वहां रखते हैं जो उसे रखने की जगह नहीं है।

इस्लाम उन लोगों की फिर गिरफ्त करता है जिन्हें माल ने अपना गुलाम बना लिया है और उसे सरकशी पर मजबूर कर दिया है कि वह उसके सहारे दूसरों की हुरमतों को पामाल करते और खालिक की नाफरमानी में आगे बढ़ते रहते हैं जबकि अल्लाह ने माल इसीलिए पैदा किया है कि वह खैर व भलाई का जरिया बने और उससे दुनिया व आखिरत की सआदत हासिल की जा सके।

बिला शुब्हा इस्लाम अल्लाह तआला की पैदा की हुई उम्दा चीजों, हलाल रिज्म को हराम करार नहीं देता और इंसान के लिए जो दौलत पैदा की है उससे फायदा उठाने से मना नहीं करता। मगर इसके साथ ही एतदाल व मियानारवी से बाहर जाने, उसकी मुकर्ररा हुदूद को लांघने से रोकता है और वह फुजूल खर्ची से भी रोकता है और बुख्ल व कंजूसी से भी इसलिए मुसलमानों को चाहिए कि वह जमाने की सितम जरीफियों का मुकाबला करने और इज्जत के साथ सर उठाकर जीने के लिए ज्यादा से ज्यादा दौलत हासिल करने की कोशिश करे और जायज व मशरूअ तरीके पर उसमें ज्यादा से ज्यादा इजाफा करने की कोशिश करे मगर इसी को अपनी जिंदगी का मेहवर न बनाएं बल्कि इसे अपनी और उम्मते मुस्लेमा की भलाई के मकसद के तहत हासिल करें।

‘‘(तर्जुमा) आप फरमाइए कि अल्लाह तआला के पैदा किए हुए असबाबे जीनत को, जिनको उसने अपने बंदो के वास्ते बनाया है और खाने-पीने की हलाल चीजों को किस शख्स ने हराम किया है? आप कह दीजिए कि यह चीजें इस तौर पर कि कयामत के दिन खालिस होंगी अहले ईमान के लिए, दुनियावी जिंदगी में मोमिनों के लिए भी हैं। हम इसी तरह तमाम आयतों को समझदारों के वास्ते साफ साफ बयान करते हैं।’’ (आराफ-22)

अल्लाह का इरशाद है-‘‘(तर्जुमा) और जो कुछ अल्लाह तआला ने तुझे दे रखा है उसमें से आखिरत के घर की तलाश भी रख और अपने दुनियावी हिस्से को भी न भूल और जैसे कि अल्लाह ने तेरे साथ एहसान किया है तू भी अच्छा सुलूक कर और मुल्क में फसाद का ख्वाहां न हो, यकीन मान कि अल्लाह फसाद करने वालों को नापसंद रखता है।’’(अल कसस-77) (निसार अहमद हसीर कासमी)

———बशुक्रिया : जदीद मरकज़