एक आम धारणा लोगों ने बना रखी है कि इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो महिला आजादी का विरोधी है और यह उन्हें दबा कर रखता है। मगर अनुसंधान और पुस्तकों से यह साबित होता है कि जब दुनिया जहालत के दौर में थी और महिला अधिकारों के खिलाफ थी, तब इस्लाम ने आकर इसे दूर किया। इस्लाम के आने से पहले, प्राचीन सभ्यताओं में महिलाओं को सिर्फ सेक्स की वस्तु समझा जाता था। लेकिन इस्लाम ने आकर उन्हे समानता का अधिकार दिया।
इस्लाम आने से पहले दुनिया में महिलाओं के हालात
रोमन सभ्यता में महिलाओं के साथ सत्तारूढ़ सम्राज्य द्वारा अत्यंत निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया जाता था। औरतों को किसी भी प्रकार का नागरिक और नैतिक अधिकार प्राप्त नहीं था। रोमन सभ्यता में अगर एक व्यक्ति अपनी पत्नी की हत्या कर देता था तो उसे कोई सजा नहीं होती थी। अगर एक मर्द चाहता तो वह कई औरतों से शादी कर सकता था और जब चाहता उन्हें खरीद-बेच सकता था। रोमन लड़कियों की बहुत कम उम्र में शादी कर दी जाती थी, ज्यादातर 12 वर्ष से भी छोटी उम्र में। इसका सबसे आदर्श उदाहरण वेचूरिया है, जिसकी शादी ग्यारह साल में कर दी गई। उसके छह बच्चे हुए और उसका निधन केवल 27 साल में हो गया। अथीनियान सभ्यता में लड़कियों को गर्भ में मार दिया जाता था। एथेंस के लोग बुतपरस्त अरबों की तुलना में अधिक बच्चियों को मारते थे। बाल मृत्यु दर 25 फीसद थी। अथीनियान सभ्यता में औरत का पहला काम शादी करना और बच्चे पैदा करना था। ग़लत परम्पराओं के चलते औरतें 14 साल से भी कम उम्र में मां बन जाती थी। उनको घरों में बंद रखा जाता और कहीं आने जाने की आजादी नहीं दी जाती थी।
महिलाओं के जीवन में बाध्यकारी मान्यताएं
इस्लाम आने से पूर्व इरानी सभ्यता में औरत को एक मुसीबत की चीज समझा जाता था। ईरान में महिलाओं को जबरदस्ती शादी करने के लिए बाध्य किया जाता था। उदाहरण के लिए, बाप अपनी बेटियों से शादी करता था और भाई-बहन से। मिस्र में भाई-बहन और पिता-बेटी के बीच शादी का रिवाज़ था। विवाह मिस्र के लोगों के लिए आदर्श था, लेकिन राजकुमारियों को अपने बराबर के लड़के से शादी की इजाजत नहीं थी। उन्हें विदेशी राजकुमारों से शादी करने से मनाही थी। कई बार ग़लत मान्यताओं के कारण भाई-बहन और पिता-बेटी के बीच शादी करा दी जाती थी। भारत में पति के लिए पत्नियों के वफादार रहने का प्रचलन था, सती जैसी प्रथाएं आम थीं। जब एक औरत का पति मरता था तो उसके चिता पर उसकी पत्नी को भी जिंदा लिटा दिया जाता था। यह रिवाज अभी भी भारत के कई छोटे क्षेत्रों में प्रचलित है।
मोहम्मद साहब के आने से पहले अरब में बेटियों को जिंदा दफन या दूध में डुबो कर मार दिया जाता था। अरब में कन्या भ्रूण हत्या काफी प्रचलित था। उसी तरह से यहूदी लोग महिलाओं को हजरत आदम को गुमराह करने का दोषी मानते थे। यहूदियों के यहां औरतों को पाप का मुख्य कारण समझा और बताया जाता था। वहीं ईसाईयों के यहां औरतों को पाप का पात्र समझा जाता और चर्च में नन बनने लिए मजबूर किया जाता था, जहां पादरी उन्हें अपमानित करते थे। इतना ही नहीं औरतों से कहा जाता था कि लोगों की आंखें अपवित्र हो जाती हैं इसलिए वे अपने सीनों को ढांपकर रखें। यह सभी बातें बताती हैं कि इस्लाम से पहले औरत को असमान, निम्न स्तरीय, सेक्स की वस्तु समझा और बताया जाता था।
इस्लाम ने औरतों को सम्मानित किया
ऐ लोगों! अपने रब से डरो जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी से उसका जोड़ा पैदा किया और इन दोनों से बहुत से मर्द और औरतें फैला दीं। -(सूरह अन-निसा, आयत-1)
इस्लाम ने आकर महिलाओं को सम्मानित किया। धार्मिक तौर पर महिलाओं को पुरुषों के बराबर माना। एक मां के रूप में ही नहीं बेटी, बहन और पत्नी के रूप में उन्हें लाखों अधिकार दिए। मर्द और औरत दो पहियों की तरह हैं, दोनों के बगैर एक-दूसरे का काम नहीं चल सकता और न ही इस समाज का कोई अस्तित्व रह सकता है। इस तरह इस्लाम ने दुनिया को बराबरी का पाठ पढ़ाया। इस तरह इस्लाम ने मर्द और औरत के बीच के भेदभाव की अवधारणा को खत्म किया।
औरतों के लिए दस्तूर के मुताबिक उसी तरह हुक़ुक़ हैं जिस तरह दस्तूर के मुताबिक़ उन पर जिम्मेदारियां है। -(सूरह अल-बक़रह, आयत-28)
क्या इस्लाम औरतों का दमन करता है या मुक्ति दिलाता है?
इस सदी में औरतों को उनके हक़ मिल रहे हैं। जब तक इस्लाम ने कदम नहीं रखा था तब तक उनको बहुत ही क्रूरता से मारा जाता था। उनको उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता था। औरत को फ्री कल्चर और उदारवाद के नाम पर नंगा किया जा रहा है। यह भी एक प्रकार की प्रताड़ना है।
आजकल हर उस चीज को मॉडर्न कल्चर और आधुनिक होने के नाम पर अपनाया जा रहा है जो पिछले जमाने में असभ्य होने का प्रतीक था। अगर अब भी आपको लगता है कि उरियानियत वाले कपड़े पहनने के बजाए इस्लाम अगर औरतों को सर ढ़कने या हिजाब पहने को कहकर औरतों का शोषण कर रहा है, तो आप गलत हैं।