इस ख़ाकदान गीती पर इंसानी वजूद के आग़ाज़ ही से दीन ए इस्लाम की इब्तेदा हुई। सदीयों की सदीयां बीत गईं, कई हज़ारे ख़त्म हो गए, हज़ारहा कोमें जन्म लेकर गोशा अदम में फ़ना हो गईं, नत नए मज़ाहिब(धर्म) ज़ाहिर हुए और उन का नाम-ओ-निशान तक मिट गया। इन बदलते हुए ज़मानों के साथ जो मज़हब-ओ-दीन इंसानियत को दीन-ओ-दुनिया में काम्याबी-ओकामुरानी से हम्कीनार करता रहा, वो एक ही दीन रहा और वो दीन इस्लाम है। और ये दीन सुबह क़ियामत तक बाक़ी-ओ-दाइम रहेगा। ज़माने के तग़य्युरात, आफ़ात दहर, हवादिस-ओ-वाक़ियात इस्लाम की रोशनी को धुँदला नहीं सकतीं और ना इस के नूर को मद्धम करसकती हैं, क्योंकि ये दीन किसी इंसानी अक़ल की इख़तिरा या किसी साईंसदाँ का काम्याब तजुर्बा नहीं, बल्कि ये ख़ालिक़ फ़ित्रत, मालिक इंसानियत, पालन्हार कायनात का तर्तीब कर्दा दिन है, जिस की मुस्तहकम बुनियादें ज़मीन की तह में नसब हैं, जिस की दीवारें बूलंद क़ामत पहाड़ों से ज़्यादा मज़बूत हैं, जिस की वुसअत के सामने समुंद्र भी कोताह हैं।
अल्लाह ताला ने दीन इस्लाम के आख़िरी-ओ-आलमगीर पैग़ंबर नबी अकरम (स.व.) को ताक़यामत इंसानियत की रूशद-ओ-हिदायत के लिए एक जामे दस्तूर हयात अता फ़रमाकर मबऊस फ़रमाया, जिस की बुनियादें क़िस्सा कहानीयों पर नहीं, जिस का दार-ओ-मदार जज़बात-ओ-एहसासात पर मबनी नहीं, बल्कि जिस की इमारत इलम-ओ-माक़ूलीयत पर क़ायम है, जो इंसान के फ़ित्री तक़ाज़ों और ज़रूरीयात पर मुश्तमिल है, जो इंसान की तरक़्क़ी-ओ-उरूज के हर मैदान में इस का साथ देने वाला है। वो सिर्फ़ क़ब्र और आख़िरत की बात नहीं करता, बल्कि इस दुनिया में जीने का सलीक़ा सिखाता है, आलमी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का अलमबरदार है। इंसानी समाज की भूक-ओ-प्यास मिटाने के लिए सेहत मंद ग़िज़ा फ़राहम करने वाला है, इंसानी बदन में पैदा शूदा हर बीमारी का ईलाज है। इंसानियत जिस की तलाश-ओ-जुस्तजू में अर्सा हाय दराज़ से हैरान-ओ-सरगरदां है, इस की कलीद सिर्फ और सिर्फ दीन इस्लाम के पास है।
आज इस्लाम कमज़ोर नज़र आरहा है, दुनिया में इस्लाम के इलावा कोई दूसरा मज़हब ऐसा नहीं है, जिस के बारे में दुनिया मनफ़ी ज़हन रखती है और ग़लत फ़हमी का शिकार है। दुश्मनान ए इस्लाम दीन ए हक़ की शबि को मुतास्सिर-ओ-मजरूह करने के लिए कोई दक़ीक़ा नहीं छोड़ रहे हैं। मुस्लिम ख़ून के प्यासे ख़ूँख़ार भेड़ीयें हमदर्दी-ओ-शाइस्तगी के लिबास में मुसल्मानों का लहू पी कर अपने क़लब-ओ-जिगर को सुकून पहुंचा रहे हैं। मुस्लमानों की मईशत को तबाह-ओ-ताराज कर रहे हैं। हर गोशे से उन पर यलग़ार हो रहा है, लेकिन ये ताग़ूती क़ुव्वतें इस्लाम की हक़्क़ानियत को ढाँप नहीं सकतीं ये शैतानी ताक़तें अपने दजल-ओ-फ़रेब के बावजूद दीन इस्लाम के ग़लबा को रोक नहीं सकतीं। ये दीन बहुत जल्द ग़ालिब होगा और सारी दुनिया में अमन-ओ-अमान, प्यार-ओ-मुहब्बत, अदल-ओ-इंसाफ़ का बोल बाला होगा। आज मुस्लमानों की सूरत-ए-हाल देख कर हमें अफ़सोस हो रहा है, लेकिन उन के मुस्तक़बिल के बारे में ग़ौर-ओ-ख़ौज़ करके ख़ुश होना चाहीए, क्योंकि इस दीन की इबतदा भी एसी ही आज़माईशों से हुई है। कुफ़्फ़ार मक्का के ज़ुल्म-ओ-जोर ने मुसल्मानों का जीना दूभर कर दिया तो मुस्लमान मदीना मुनव्वरा की तरफ़ बे सर-ओ-सामान हिज्रत पर मजबूर हो गए। वतन छूटा, आबा ओ- अज्दाद के मकानात छूटे, कारोबार ख़त्म हो गया, मईशत तबाह हो गई, लेकिन दुश्मनान ए दीन ने मदीना में भी मुस्लमानों का पीछा नहीं छोड़ा, हमले पर हमले किए, जंग बदर हुई। दुश्मनों के होसले पस्त नहीं हुए, जंग उहूद हुई, मुस्लमान कम्ज़ोर समझे गए। हज़रत हम्ज़ा, हज़रत मुसअब जैसे जलील-उल-क़दर सहाबा किराम शहीद हुए। हर मुस्लमान ज़ख़मों से चूर था, मदीना मुनव्वरा में मुस्लमानों के रोब-ओ-दबदबा में फ़र्क़ आया। अतराफ़-ओ-अकनाफ़ के क़बाइल पर मुस्लमानों की धाक मुतास्सिर हुई। एसे नाज़ुक-ओ-कमरतोड़ हालात में परवरदिगार आलम अहल इस्लाम को ख़ुशख़बरी देता है। वो ये समझते हैं कि अल्लाह के नूर को अपनी फूंकों से बुझा देंगे, अल्लाह अपने नूर को मुकम्मल करने वाला है, अगरचे कुफ़्फ़ार पसंद ना करें। वही रब है जिस ने अपने रसूल को हिदायत और दीन हक़ के साथ मबऊस फ़रमाया, ताकि उस को तमाम अदयान पर ग़लबा अता करे, अगरचे मुशरिकीन पसंद ना करें। (सूरा सफ़।८,९)
दीन ए इस्लाम ने अपने इस सफ़र में कई तूफ़ानों का सामना किया, जिस की होलनाकी से बहादुर-ओ-दिलेर इंसानों का भी कलेजा फट जाता है। एसी होल्नाक आंधीयां भी इस्लाम की जड़ को नुक़्सान पहुंचा ना सकी। आज भी इस्लाम एक सब्र आज़मा दोर से गुज़र रहा है, एक तरफ़ इस्लाम के ख़िलाफ़ आलमी इत्तिहाद अपनी तमाम तर तवानाईयां सर्फ कर रहा है तो दूसरी तरफ़ आलमी मुस्लिम हुकमरानों की दुनिया परस्ती, मग़रिब की गु़लामी और सयासी ना एहली ने इस्लाम को बहुत नुक़्सान पहुंचाया।
मुसल्मानों का मआशी इन्हितात का शिकवा अबस है, क्योंकि सारी दुनिया में बेरोज़गारी की हवाएं चल रही हें, लेकिन अहम बात ये है कि दुश्मनान ए दीन ज़राए इबलाग़ के ज़रीया दुनिया में इस्लाम के ख़िलाफ़ मनफ़ी सोच के बीज बो रहे हैं और राय आम्मा की बुनियाद ही ज़्यादा तर ज़राए इब्लाग़ के वसाइल पर हो गई है, जिस से मुसल्मान महरूम हैं और वो ख़ातिरख़वाह ज़राए इबलाग़ से इस्तिफ़ादा भी नहीं कर रहे हैं।
मुस्लिम ममालिक बहुत हैं, इस्लाम अददी ताक़त-ओ-क़ुव्वत में कम नहीं है, तादाद काबिल-ए-क़दर है, लेकिन मेयार इंतिहाई पस्त है। मुस्लमानों को अपने मेयार को बढ़ाने, अपनी फ़िक्र को वसी करने, काज़-ओ-मक़सद के तहत जीने का हौसला पैदा करना चाहीए। इस्लामी तहज़ीब एक हज़ार साल तक दुनिया के तूल-ओ-अर्ज़ में फल्ती फूल्ती रही, लेकिन वही तहज़ीब आज इंसानियत के लिए आर समझी जा रही है।
दुनिया की तहज़ीबें एक दुसरे पर असरअंदाज़ हो रही हैं, जब कि मुस्लिम तहज़ीब दीगर तहज़ीबों से मुतास्सिर होती जा रही है और आलमी तहज़ीबों में अपना इमतियाज़ी मुक़ाम बनाने से आजिज़ नज़र आरही है। अब वक़्त आगया है कि मुस्लमान ख़ाब-ए-ग़फ़लत से बेदार होकर अपनी ज़िंदगी के मक़सद को मुतय्यन करें और इस्लाम की सरबुलन्दी, इस के आफ़ाक़ी-ओ-आलमगीर पैग़ाम और अबदी दस्तूर हयात को दुनिया के सामने दुनिया के तक़ाज़ों के मुताबिक़ पेश करने के लिए कमर हिम्मत बांध लें और नए अंदाज़ में दीन इस्लाम के हक़ायक़ को आम करने के लिए तैयार हो जाएं, क्योंकि आज के भूके, प्यासे, कम्ज़ोर और बीमार इंसानी समाज का ईलाज सिर्फ और सिर्फ दीन इस्लाम में है।