सिवइयों में लिपटी मोहब्बत की मिठास का त्योहार ईद-उल-फितर भूख-प्यास बरदाश्त करके एक महीने तक सिर्फ खुदा को याद करने वाले रोजेदारों को अल्लाह का इनाम है।
मुसलमानों का सबसे बड़ा त्योहार कहा जाने वाला यह त्योहार न सिर्फ हमारे समाज को जोड़ने का मजबूत सूत्र है, बल्कि यह मजहबे इस्लाम के प्रेम और सौहार्द भरे संदेश को भी पुरअसर ढंग से फैलाता है।
मीठी ईद भी कहा जाने वाला यह पर्व खासतौर पर हिन्दुसतानी समाज के ताने-बाने और उसकी भाईचारे की सदियों पुरानी परम्परा का वाहक है।
इस दिन विभिन्न धर्मों के लोग गिले-शिकवे भुलाकर एक-दूसरे से गले मिलते हैं और सेवइयां अमूमन उनकी तल्खी की कड़वाहट को मिठास में बदल देती है।
ईद-उल-फितर एक रूहानी महीने में कड़ी आजमाइश के बाद रोजेदार को अल्लाह की तरफ से मिलने वाला रूहानी इनाम है। ईद समाजी तालमेल और मोहब्बत का मजबूत धागा है। यह त्योहार हमारे समाज की परम्पराओं का आईना है। एक रोजेदार के लिए इसकी अहमियत का अंदाजा अल्लाह के प्रति उसकी क़लबी लगाव से लगाया जा सकता है।
दुनिया में चांद देखकर रोजा रखने और चांद देखकर ईद मनाने की पुरानी परम्परा है और आज के हाईटेक युग में तमाम बहस-मुबाहिसे के बावजूद यह रिवाज कायम है। व्यापक रूप से देखा जाए तो रमजान और उसके बाद ईद व्यक्ति को एक इनसान के रूप में सामाजिक जिम्मेदारियों को अनिवार्य रूप से निभाने का दायित्व भी सौंपती है।
रमजान में हर सक्षम मुसलमान को अपनी कुल सम्पत्ति के ढाई प्रतिशत हिस्से के बराबर की रकम निकालकर उसे गरीबों में बांटना होता है। इससे समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी का निर्वहन तो होता ही है, साथ ही गरीब रोजेदार भी अल्लाह के इनामरूपी त्योहार को मना पाते हैं।
व्यापक रूप से देखें तो ईद की वजह से समाज के लगभग हर वर्ग को किसी न किसी तरह से फायदा होता है। चाहे वह वित्तीय लाभ हो या फिर सामाजिक फायदा हो। हिन्दुसतान में ईद का त्योहार यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के साथ मिलकर उसे और जवां और खुशनुमा बनाता है। हर धर्म और वर्ग के लोग इस दिन को तहेदिल से मनाते हैं।
जमाना चाहे जितना बदल जाए, लेकिन ईद जैसा त्योहार हम सभी को अपनी जड़ों की तरफ वापस खींच लाता है और यह अहसास कराता है कि पूरी मानव जाति एक है और इन्सानियत ही उसका मजहब है।