ईद मीलाद-उन्नबी (स०अ०व०)

इश्क़ रसूल (‍स०अ०व०) और ख़ौफ़-ए-ख़ुदा से ज़िंदगी का आख़िरी मक़्सद और आख़िरी मंज़िल मग़फ़िरत नसीब होती है। अगर दिल में ख़ौफ़ ख़ुदा और इश्क़ नबवी (स्०अ०व्०) हो तो फिर दुनिया वालों से डर की कोई गुंजाइश नहीं। अल्लाह ताला ने क़ुरआन मजीद में एक से ज़ाइद मर्तबा इरशाद फ़रमाया है कि अल्लाह की इबादत करो और रसूल (स्०अ०व्०)की इताअत करो, हुज़ूर अकरम (स्०अ०व्०)  पर दरूद-ओ-सलाम भेजो क्यों कि अव्वलीयत-ओ-तक़द्दुम की शान वाले नबी हुज़ूर अकरम (स्०अ०व्०) हैं।

हुज़ूर अकरम (स्०अ०व्०) आला-ओ-अर्फ़ा शान-ओ-अज़मत के मालिक हैं। आप ही की फ़ज़ीलत तमाम अम्बिया-ए-किराम पर मुस्लिम है। हुज़ूर (स्०अ०व्०)उस वक़्त भी नबी थे जब आदम अलैहिस्सलाम रूह और जिस्म के दरमयान थे। इस का वाज़िह मतलब यही है कि हुज़ूर अकरम उस वक़्त भी नबी थे जब आदम अलैहिस्सलाम की रूह मुबारक का जिस्म से ताल्लुक़ क़ायम ना था।

आज सारा आलम आप (स्०अ०व्०)की विलादत बासआदत का जश्न मना रहा है और इस ज़ात अक़्दस पर लाखों दरूद-ओ-सलाम भेज रहा है, आप ((स्०अ०व्०)) पर फ़रिश्ते भी दरूद-ओ-सलाम भेजना बाइस इज़-ओ-शरफ़ समझते हैं। हादी बरहक़ आँहज़रत (स्०अ०व्०)सारे जहां के लिए रहमतुलआलमीन बनाकर भेजे गए। आप ((स्०अ०व्०)) की विलादत मुबारक बनी नौ इंसान के लिए चिराग़-ए-हिदायत, तारीकी में रोशनी और गुमराही से निकाल कर राह-ए-नजात दिखाने के लिए हुई।

आप ((स०अ०व०) ने दुनिया के तमाम इंसानों के सामने ऐसा ज़ाबता हयात और ज़िंदगी का मंशूर पेश फ़रमाया जिस पर अमल करके दीन-ओ-दुनिया की फ़लाह हासिल की जा सकती है। दुनिया के मुआशरा का कोई ऐसा गोशा नहीं है जिस की आप ने रहनुमाई ना फ़रमाई हो। लेकिन ये दुनिया और इसके चाहने वालों ने माद्दी आसाइशों से भरपूर ज़िंदगी गुज़ारते हुए हुज़ूर (स्०अ०व्०) की तालीमात को तर्क किया इससे इंसानों में बेचैनी की कैफ़ीयत पैदा होगई है।

ज़ाती मुफ़ादात को तर्जीह, दूसरों के हुक़ूक़ की पामाली, फ़राइज़ से ग़फ़लत और मनचाही ज़िंदगी गुज़ारने की आदत ने इंसानों को खासकर उम्मत मुस्लिमा को बेचैन-ओ-बेक़रार और दूसरों के सामने दस्त फैलाने वाला बना दिया, मुआशरा तंगदस्ती का शिकार होता गया। कर्ज़ों के बोझ तले दबता गया और सूदख़ोरों के चंगुल में फंसता जा रहा है। मनचाही ज़िंदगी गुज़ारने और लड़के-ओ-लड़कीयों की शादीयों को ग़ैर इस्लामी तर्ज़ से मरबूत करने के नतीजा में इसराफ़ का लामतनाही सिलसिला चल पड़ा, जिस से ये अफ़सोसनाक हक़ीक़त सामने आ रही है कि इंसान फिर से ख़ुद को इसी ज़ुल्मत में ढकेल रहा है जहां वो 14 सौ साल क़बल खड़ा था।

आँ हज़रत (स्०अ०व्०) ने दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोसीयों के हुक़ूक़ बताए हैं, ज़िंदगी के तर्ज़ और निकाह की अफ़ज़लीयत को समझाया है, निकाह को आसान बनाने के मक़ासिद ब्यान फ़रमाए हैं। अगर आज मन-ओ-एन हुज़ूर अकरम ((स्०अ०व्०))  की तालीमात पर अमल किया जाय तो ये दुनिया गहवारा अमन हो जाएगी और उमत मुस्लिमा किसी के पास हाथ फैलाने और हुकमरानों के रहम-ओ-करम पर तकिया करने की आदत से छुटकारा पाएगी।

हिंदूस्तान में मुस्लमानों को तहफ़्फुज़ात की चक्की में पिसा जा रहा है, इन तहफ़्फुज़ात से असल फ़ायदा तो नहीं होगा अलबत्ता मुस्लमान सयासी मुफ़ादात की भेंट चढ़ा दीए जाऐंगे। हुज़ूर (स्०अ०व्०)  ने ऐसे हर हालात से बचने के लिए मुस्लमानों को सदक़ा, ज़कात की इतनी ज़्यादा एहमीयत बताई कि अगर सादिक दिल्  से इस पर अमल किया जाय तो मुस्लमान तबक़ा किसी का मुहताज नहीं रह जाएगा।

सऊदी निज़ाम की वजह से मुआशरा इस लिए तबाह हो रहा है कि मुस्लमान अपनी दौलत की तक़सीम का निज़ाम दरुस्त करने की फ़िक्र नहीं रखते। तक़ारीब मैं इसराफ़ को रोकने का ख़्याल नहीं होता, अगर दौलत के इस्तेमाल और इस की तक़सीम का निज़ाम हुज़ूर (स्०अ०व्०) की तालीमात की रोशनी में किया जाय तो उम्मत मुस्लिमा के ग़रीब अफ़राद के हालात-ए-ज़िंदगी को तबदील करने के लिए काफ़ी है। मुस्लमानों के समाजी, मआशी और तालीमी मसाइल कई हैं, सरकारी और मुआशरती सतह पर उन के साथ मुख़्तलिफ़ शोबों में नाइंसाफ़ीयां रवा रखी जा रही हैं।

हुक्मराँ तबक़ा मुस्लमानों की कमज़ोरीयों का फ़ायदा उठाकर सिर्फ़ ज़बानी या काग़ज़ी कार्यवाहीयां करके अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहा है। मुस्लमानों की बहबूद के लिए अब तक कई कमेटियां और कमीशन बनाए गए और उन की ज़ख़ीम रिपोर्टस भी तैयार कर ली गईं मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।अक़ल्लीयती कमीशन या सच्चर कमेटी और फिर रंगनाथ मिश्रा कमीशन और इस तरह की कई कमेटियां तशकील-ओ-तहलील की जाती रहीं मगर मुस्लमानों के हक़ में ग़ैर इतमीनान बख़श मआशी मौक़िफ़ ही हासिल हुआ।

मुआशर्ती बिगाड़ का भी अफ़सोसनाक पहलू ये है कि मुस्लिम लड़के, लड़कीयां ग़ैर मुस्लिमों की मिल्कियत बन रहे हैं तो मुआशरा की इस्लाह की फ़िक्र करने वालों के लिए ये वाक़ियात अफ़सोसनाक हैं। दीनदारी, सलीक़ा मंदी और दीनी अहकामात से वाक़फ़ीयत रखने का चलन ख़तम् होरहा है। इस्लाह मुआशरा और अवामी बेदारी की मुहिम चलाने वाली तंज़ीमें भी ऐसा मालूम होता है कि ज़माने के साथ थक गई हैं।

जमात-ए-इस्लामी जैसी तंज़ीमों ने समाजी और अख़लाक़ी मसाइल पर तवज्जा देने का बीड़ा उठाया था, 1980 से लेकर उस की सरगर्मीयों में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ था मगर हालिया बरसों में मुआशरा की हालत देख कर अंदाज़ा होता है कि मसाइल से दिलचस्पी का इज़हार कम होगया है। ज़माने की तल्ख़ियों ने पुराज़म क़ाफ़िलों को भी मायूस कर दिया है तो ये तकलीफ़देह है। ऐसे में मुआशरा की बेहतरी का दार-ओ-मदार अज़ ख़ुद उम्मत मुस्लिमा के हर फ़र्द पर होता है।

घर की चार दीवारी में हुज़ूर (स्०अ०व्०) की तालीमात को सख़्ती के साथ रूबा अमल लाने के लिए उम्मत मुस्लिमा के हर फ़र्द को मेहनत करने की ज़रूरत है। मोमिन के मन की दुनिया पर सिर्फ अल्लाह और इस के रसूल ((स्०अ०व्०) की इताअत का राज हो तो इन्फ़िरादी और ज़ाती ज़िंदगी में यक़ीनन एक बेहतर इन्क़िलाब आएगा, और एक से दो और दो से चार इस तरह पूरी उम्मत मुस्लिमा हुज़ूर(स०अ०व०) के उस्वा हसना पर अमल करने की पाबंद हो जाएगी।(आमीन)।