उमरा के लिये शरई और मुल्की क़वानीन … और हमारी कोताहियां

नुमाइंदा ख़ुसूसी–अगर किसी अच्छे से अच्छे काम को भी ग़लत तरीका से किया जाय तो इस काम की कोई अहमियत और फ़वाइद नहीं होते । इसी तरह अगर किसी इबादत को धोका , झूट , फ़रेब , चालाकी और अपनी ग़लत ज़हानत को इस्तिमाल कर के किया जाय , तो ज़ाहिर है कि इस इबादत में रूह कहां होगी , वो बगैर जान के एक ढांचा की तरह होगी । इस के फ़वाइद-ओ-असरात हमारी ज़िंदगी में ज़ाहिर ना होंगे ।

शरीयत मुतह्हरा ने जिस इबादत को जिस अंदाज़ में और जिन शराइत के साथ करने का हुक्म दिया है अगर उन की रियायत की जाय तो इबादत का मक़सद हासिल होगा वर्ना शायद गुनाह के इलावा कोई चीज़ हासिल ना होगी लेकिन इस पस-मंज़र में जब हम अपने मुआशरे को देखते हैं तो हमें नज़र आता है कि चंद मुस्लमान हज़ारों रुपये ख़र्च कर के भी ग़लत तरीका से इबादत कर रहे हैं ।

चंद मुस्लिम मर्द और ख़वातीन बगैर महरम के उमरा के सफ़र को जाते हैं और उमरा की सआदत हासिल करने की कोशिश करते हैं । यही नहीं बल्कि बहुत से हज़रात झूट बोल कर दूसरे को अपना महरम बतला कर उमरा को जाते हैं । ये मुस्लमानों के लिये लम्हा फ़िक्र है कि जिस इबादत की बुनियाद ही झूट पर हो इस में सवाब मिलेगा या बगैर महरम के या गैर महरम के साथ सफ़र करने की अहादीस मुबारका में सख़्त मुमानिअत आई(मना) है ।

एक हदीस शरीफ में है कि : अल्लाह और यौम आख़िरत पर इमान लाने वाली औरत के लिये हलाल नहीं कि वो बगैर बाप , भाई , लड़के , शौहर , या महरम के तीन या इस से ज़ाइद दिनों का सफ़र करे ( मुस्लिम शरीफ ) । उसी औरत को हदीस में बहुत बुरा कहा गया है जो बगैर महरम के सफ़र करे और शरीयत इस्लामीया में महरम से मुराद वो लोग हैं जिन से हमेशा के लिये निकाह करना हराम हो ।

औरत के हक़ में महरम की शर्त उस की अस्मत-ओ-नामूस(इज्ज़त) की हिफ़ाज़त और बदगुमानी , बदनामी और तोहमत से बचाने के लिये है जिस के बगैर औरत की कोई कीमत नहीं और हालत सफ़र में औरतों की अस्मत-ओ-नामूस(इज्ज़त) की हिफ़ाज़त जिस क़दर शौहर और महरम कर सकता है कोई दूसरा नहीं कर सकता । बल्कि दूसरे की वजह से फ़ित्ना के अंदेशा में और इज़ाफ़ा होगा । मगर हमारे मुआशरे में बहुत से उमरा के ख़ाहिशमंद हज़रात-ओ-ख़वातीन दूसरे को महरम बनाकर वीज़ा हासिल करते हैं और उन के साथ उमरा को जाते हैं । झूट बोल कर कोई किसी को माँ बनाता है कोई किसी को ख़ाला , फूफी वगैरह बनाकर उमरा को जाने की कोशिश करता है । इस तरह अरब ममालिक में बरसेर रोज़गार बहुत से हज़रात अपनी ख़वातीन को बुलाने के लिये गैर महरम का सहारा लेते हैं ।

जब कि हदीस के अंदर भी सराहत है कि बगैर महरम के औरत सफ़र ना करे और उमरा के लिये जाने वाली ख़वातीन के लिये सऊदीया अरबिया हुकूमत का भी क़ानून है कि बगैर महरम औरत को वहां का वीज़ा नहीं हासिल हो सकता । इस तरह 40 साल से कम उमर के मर्द हज़रात को भी अहलिया या महरम ख़ातून के बगैर उमरा का वीज़ा सऊदी हुकूमत की जानिब से फ़राहम नहीं किया जाता नीज़ उमरा वीज़ा की दीगर(दुसरे) शराइत-ओ-तफ़सीलात हसब ज़ैल हैं ।

उमरा वीज़ा की वेलिडिटी सिर्फ एक माह की होती है (2) इस वीज़ा की वजह से सऊदी में रहने या काम करने का हक़ नहीं होता (3) उमरा के लिये दरख़ास्त दहिंदा के पास कम अज़ कम छः माह की वेलिडिटी वाला पासपोर्ट होना ज़रूरी है (4) उमरा करने वाले को सेहत के मुख़्तलिफ़ सरटेफ़िकेट दाख़िल करना ज़रूरी होता है (5) हर उमरा करने वाले को हुकूमत सऊदी के क़वानीन का पास-ओ-लिहाज़ करना ज़रूरी होगा (6) उमरा वीज़ा ख़तम होने के बाद सऊदीया में इक़ामत नहीं कर सकते (7) उमरा वीज़ा से हज भी नहीं कर सकते (8) ख़वातीन किसी भी उम्र में बगैर महरम के उमरा नहीं कर सकतीं (9) 40 साल से कम उमर के मर्द भी बीवी या महरम ख़ातून के बगैर सफ़र उमरा को नहीं जा सकते (10) महरम की मुकम्मल तफ़सील , दरख़ास्त फ़ार्म में दर्ज करनी पड़ेगी ।

इन तमाम क़वानीन के बावजूद भी लोग आँख में धूल झोंक कर उमरा को जा रहे हैं । सियासत अख़बार के एक क़ारी जिन की उम्र 38 है और वो क़ानूनन इस उम्र में तन्हा उमरा नहीं कर सकते थे तो एजंसी ने उन्हें एक माँ बेटी के हमराह महरम बताकर भेज दिया उन्हों ने बताया कि मुझे वहां उन के साथ इतनी परेशानियों और मुश्किलात का सामना करना पड़ा जो बयान से बाहर है । जब हम ने इस हवाले से ट्रावैल एजंसियों से बात की तो उन्हों ने क़बूल किया कि एसे वाक़ियात में अब तेज़ी आती जा रही है । उन्हों ने कहा कि अरब और ख़लीजी ममालिक में काम करने वाले बहुत से हज़रात हमें काल करते हैं कि एक अर्सा से मैं यहां मुलाज़मत कर रहा हूँ , मुझे अपनी अहलिया को बुलाना है ।

आप किसी भी ज़रीया से उमराके बहाने उन्हें भेज दें । उन्हों ने कहा कि हम ताल्लुक़ात या पैसा की बिना पर एसा कर देते हैं लेकिन ख़ुद लोगों के अंदर शऊर बेदार होना चाहीए कि वो जो कर रहे हैं क्या शरीयत की रु से सहीह है ? एक ट्रावैल एजंसी ये भी दावे किया कि हज कमेटी की जानिब से जितने आज़मीन हज को जा रहे हैं जिन की तादाद तक़रीबन 6000 हज़ार होती है अगर सही और शफ़्फ़ाफ़ तहकीकात कराई जाय तो तक़रीबन 200 आज़मीन एसे होंगे जो गैर महरम के साथ जा रहे हैं । एजंसी ने बताया कि कुछ ख़वातीन इसी होती हैं जो इस्तिताअत (पैसे) ना होने की वजह से दूसरे का सर्फ़ा (खर्च)बर्दाश्त नहीं कर सकती ।

अकेले ही सफ़र कर सकती हैं तो हमें उन को किसी दूसरे मर्द के साथ करना पड़ता है ताकि दोनों का काम होजाए । मक्का हिंदूस्तान से तक़रीबन 3 हज़ार 8 सौ किलो मीटर के फ़ासिला पर है । अगर क़ानून की ख़िलाफ़वरज़ी कर के शरीयत को पसे पुश्त(नजर अंदाज) डाल कर इतना तवील सफ़र गैर महरम के साथ किया जाएगा वो भी झूट बोल कर तो इस के कैसे नताइज बरामद होंगे । लोगों में दीन के हवाले से मालूमात बहुत कम होती जा रही हैं ।

नीज़ उल्मा किराम से मुराजअत का सिलसिला भी इंतिहाई सुस्त है । लिहाज़ा मुस्लमानों में देनी शऊर बेदार करना हर मुस्लमान पर फ़र्ज़ है । खास तौर पर मसाजिद के ख़तीबों को चाहीए कि जुमा के ख़ुत्बे में इसे भी मौज़ू बनाकर तफ़सील के साथ इस मसला पर रोशनी डालें ताकि अवाम को शरीयत के हवाले से वाक़फ़ियत हासिल हो और उसे गैर शरई वाक़ियात में कमी आए ।।