उर्दू क्या है? एक कोठे की तवायफ है !

खुशवंत सिंह – उर्दू का मुक़द्दर दो पड़ोसी मुल्कों में एक के बाद एक, दो दिनों में तै किया गया. 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में, जब इस ने ख़ुद को एक ख़ुदमुख़तार, आज़ाद मुस्लिम जमहूरीया क़रार दे दिया. अगले दिन 15 अगस्त को हिन्दुसतान में, जब इस ने ख़ुद को एक ख़ुदमुख़तार, (और बाद में समाजवादी) मुल्क का ऐलान किया. पाकिस्तान ने उर्दू को तमाम इलाक़ों में बोली जानेवाली ज़बानों – पंजाबी, पुश्तो, बलोच, सरायकी और सिंधी से ऊपर अपनी क़ौमी ज़बान के बतौर क़बूल किया. हिन्दुसतान ने इलाक़ाई ज़बानों को हिन्दी के बराबर का ओहदा देते हुए हिन्दी को बतौर क़ौमी ज़बान के अपनाया।

उर्दू को भी हिन्दुसतान में एक ओहदा दिया गया, लेकिन अपना कहने को इस का कोई इलाक़ा नहीं था. नतीजा दूर रस रहा. पाकिस्तान के उर्दू को अपनी क़ौमी ज़बान बनाने में कामयाब रहा और अंग्रेज़ी को दूसरे दर्जे पर धकेल दिया. हिन्दुसतान के हिन्दी को अपनी क़ौमी ज़बान बनाने में नाकाम रहा क्योंकि इलाक़ाई ज़बानों ने अपने – अपने इलाक़ों में दबदबा और दावे बरक़रार रखा. हिन्दी बहुत हद तक शुमाली रियास्तों तक सिमट गई और अंग्रेज़ी ने राबिता ज़बान के तौर पर तसल्लुत बरक़रार रखा।
प्रिंट मीडीया में तो अंग्रेज़ी की ही बले – बले होती रही. उर्दू धीरे-धीरे चलन से बाहर होती गई और अब सुस्त मौत मर रही है. लेकिन ग़ौर करने की बात ये है कि उर्दू मर रही, बल्कि वो अरबी रस्मुल ख़त मर रही है जिस में ये लिखी जाती है दाएं से बाएं. राशिद का एक शेर अर्ज़ है …
ख़ुदा से मेरी सिर्फ़ एक ही है दुआ
गर में वसीयत लिखूं उर्दू में, बेटा पढ़ पाए।

किसी भी ज़बान के सब से बड़े दुश्मन वो लिसानी कठमुल्ले हैं जो अपनी हरूफ़-ए-तहज्जी को बेहतर बनाने या दूसरी ज़बानों के अलफ़ाज़ को क़ुबूल करने से इनकार कर देते हैं. आज हमारी किसी भी ज़बान में वक़्फ़ से अलैहदा, कोलन, सेंटीमीटर – कोलन, इनवर्टेड कोमा की ज़रीया या सवालिया अलामात जैसे मार्क का इस्तिमाल नहीं होता. हिंदू कठमुल्ले स्कूल और कॉलिजों में उर्दू शायरी को लेने नहीं देते. वो ये मानने से इनकार कर देते हैं कि उर्दू को बहुत अच्छे तरीक़े से दूसरी हिंदुस्तानी स्क्रिप्ट में पेश किया जा सकता है. अपनी बात करूं तो में ग़ालिब और दूसरे उर्दू शोराए किराम को उर्दू, हिन्दी और गुरुमुखी में पढ़ता हूँ.। और उन का लुतफ़ उठाता हूँ.

लेकिन ख़त्म होने की डगर पर बढ़ने के बावजूद उर्दू ने अपना वजूद बरक़रार रखा है, चाहे वो बॉलीवुड की फिल्मों के गानों में हो या पार्लियामेंट की बहसों में सब से ज़्यादा हवाला की जानेवाली ज़बान के तौर पर. फ़िल्मी गानों ने इस के सब से ख़ूबसूरत अलफ़ाज़ और अंदाज़-ए-बयान को बरक़रार रखा है और बाज़ार से लेकर घरों तक आसान हिन्दी या कहें तो हिंदुस्तानी के तौर पर पहुंचा दिया है. यहां तक कि जुनूबी हिन्दुसतान में भी इस तरह उर्दू पहुंच रही है. आख़िर में, उर्दू के हश्र को बयान करने के लिए ये दो लाइनें काफ़ी हैं …….

उर्दू क्या है? एक कोठे की तवायफ है…
मज़ा सब कोई लेता है,मोहब्बत कोई नहीं करता।